तलाक़ - एक विश्लेषण
मान्यता है कि वैवाहिक जोड़े ईश्वर स्वर्ग में बनाता है लेकिन हमेशा इन जोड़ों की आपस में नहीं बनती और ये बीच सफर में ही अलग होने का फैसला कर लेते हैं। सात जन्म का यह रिश्ता सही तरीके से एक जन्म भी नहीं चल पाता है और बात तलाक या विवाह विच्छेद तक पहुंच जाती है।। पहले भारत में तलाक के किस्से आम नहीं थे क्योंकि हमारे यहां विवाह एक सामाजिक और धार्मिक संस्कार के रूप में माना जाता था , जिसमें दंपति तमाम वैवाहिक और पारिवारिक समस्याओं के बावजूद इसे जीवनपर्यंत निभाने की कोशिश करते थे। अनेक ऐसे परिवार हैं, जिनमें पति पत्नी में कभी नहीं बन पायी परंतु उन्होंने समाज और परिवार को ध्यान में रखकर अलग होने की बात कभी नहीं सोची, परंतु अब बदलते समय के साथ लोग इस दिशा में मुड़ने लगे हैं। जाहिर है कि लोग अब विवाह को एक सामाजिक -धार्मिक संस्कार न मानकर एक सामाजिक समझौता के रुप में समझने लगे हैं , जिसमे दो पक्ष साथ मे जिंदगी बिताने का फैसला करते हैं और जब आपस में नही बनती है तो दोनों अलग हो जाते हैं।
भारत में तलाक के मामले पिछले कुछ दशकों में बहुत तेजी से बढ़े हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 2019-21 में तलाक की दर 0.8% से बढ़कर 1.2% हो गई, जिसमे शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक वृद्धि हुई है। पिछले दो दशकों में तलाकों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई है। आज दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे शहरों में तलाक की दर वैवाहिक जोड़ों में 30% से भी ज़्यादा है। दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई, कोलकाता और लखनऊ जैसे बड़े शहरों में तलाक के केसों में तीन गुना वृद्धि हुई है। हालांकि पितृसत्तात्मक समाज प्रधानता वाले राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और राजस्थान आदि जैसे में तलाक और अलगाव की दर अपेक्षाकृत कम है। पूर्वोत्तर क्षेत्रों में तलाक की दर बहुत अधिक है। चिंताजनक बात यह है कि भारत में छोटे शहरों व गांवों में भी तलाक की दर में वृद्धि देखी जा रही है। दिल्ली में तलाक के प्रतिवर्ष लगभग 9 हजार मामले दर्ज किए जाते हैं, जो नब्बे के दशक में दर्ज होने वाले औसतन 1 हजार मामलों से बहुत अधिक है। कोलकाता और चेन्नई में भी तलाक की दर में 200 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। केरल में तलाकों में 350 प्रतिशत की तो पंजाब और हरियाणा में तलाक के मामलों में 150% की वृद्धि देखी गई है। एक आंकड़े के अनुसार 2021 में देश भर की पारिवारिक न्यायालयों में विवाह विच्छेद के मामले करीब पांच लाख थे, वह वर्ष 2023 में बढ़कर आठ लाख से अधिक हो गए। महिलाओं की अपेक्षा तलाक की मांग करने वाले पुरुषों की संख्या बढ़ रही है।
भारतीय समाज में विवाह भले ही एक सामाजिक और धार्मिक संस्कार माना जाता रहा हो परंतु एक पक्ष हमेशा से इसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अंग के रूप में देखता रहा है, जो पति द्वारा पत्नी के शोषण पर आधारित था। पाश्चात्य संस्कृति से उपजी सोच ने तलाक को स्त्री स्वतंत्रता से जोड़कर देखना शुरु कर दिया है जिसने परंपरागत वैवाहिक मूल्यों को कमजोर कर दिया है। भारत में शादी दो लोगों के बीच नहीं बल्कि दो परिवारों के बीच होती है। हमारे देश में प्यार, नफरत, विवाह और दूसरी शादी जैसी समस्या को सामाजिक स्तर पर सुलझा लिया जाता रहा है। सर्वप्रथम वर्ष 1955 में संसद में हिंदू कोड बिल पारित किया, जिसमें महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया गया। बहु विवाह पर रोक लगाई और तलाक मांगने का अधिकार भी मिला। वर्ष 1976 में इस में संशोधन किया गया तथा इसमें पति-पत्नी के बीच सहमति से तलाक लेने की अनुमति दी गई। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में समय के साथ ही परंपरागत संयुक्त परिवार टूटने लगा और स्त्री घरेलू से कामकाजी होते हुए आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने लगी। हालांकि पति भी अब पहले जैसे पुरुषवादी सोच के नहीं रहे हैं। तलाक़ के अधिकतर मामलों में यह मुख्य कारण उभर आता है कि दंपति द्वारा शादी के पहले के वादे पूरे न करना। इसके अतिरिक्त अपनी नौकरी की वजह से पत्नी को कम समय देना, नौकरी के कारण अलग-अलग शहरों में रहना। पत्नी की जिम्मेदारी न उठाना , विवाहेतर संबंध इत्यादि आम कारण रहा है। कई लोग घर वालों के दबाव में शादी कर लेते हैं, लेकिन बाद में यह रिश्ता कड़वाहट के साथ टूट जाता है। कोरोना काल के लॉकडाउन में भारतीय पति-पत्नी के रिश्ते पहले के मुकाबले ज्यादा टूटे हैं। जैसे-जैसे ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, वे पहले से कहीं ज़्यादा स्वतंत्र हो गई हैं। नए आत्मविश्वास के साथ, वे अपने पतियों से ज़्यादा सम्मान और समानता के आधार पर व्यवहार की उम्मीद करती हैं, लेकिन जब पुरुष इसको अपनी पुरुषवादी सोच के कारण कर नहीं पाता तो इससे उनके बीच गंभीर मतभेद पैदा होते हैं, जो अक्सर तलाक की ओर ले जाते हैं। दूसरी ओर शिक्षित पुरुष भी अपनी पत्नियों से इसी तरह के सम्मान की अपेक्षा करते हैं, तो नारीवादी सोच की स्त्रियों के साथ भी ईगो क्लैश की संभावना बढ़ जाती है। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि बेटी के ससुराल में लड़की की मां का ज़रूरत से ज्यादा दखलंदाजी आजकल परिवारों के टूटने का मुख्य कारण बनता जा रहा है। हालांकि तलाक के कुछ मामलों में कभी-कभी बहुत ही बेतुका आधार सामने आता है जैसे कि पति या पत्नी का पालतू कुत्ते को पाल लेना, पति का ज्यादा खर्राटे लेना, पति का पत्नी को हनीमून पर गोवा के बजाय किसी धार्मिक स्थल ले जाना आदि। विवाहेतर संबंध तलाक का एक प्रमुख कारण है, चाहे वह शारीरिक या भावनात्मक विश्वासघात के माध्यम से हुआ हो। एक अमेरिकी सर्वेक्षण में तलाक लेने वाले 73 प्रतिशत जोड़ों ने आपसी विश्वास और प्रतिबद्धता की कमी को अपने वैवाहिक जीवन के टूटने का मुख्य कारण बताया था। वैवाहिक संबंधों में आपस में लगातार बहस करना,आपसी समस्याओं को जबरदस्ती दबा देना या फिर आपस में झूठ बोलना संबंधों को खराब करता है। पति-पत्नी का आपस में एक-दूसरे से खुलकर बात नहीं करना रिश्ते खराब करता है। घरेलू हिंसा, भावनात्मक दुर्व्यवहार, एक दूसरे को चोट पहुंचाने वाले शब्दों और कार्यों से नीचा दिखाना या उसकी आलोचना करना, जबरदस्ती कंट्रोल करना या करने की कोशिश करना तलाकों के प्रमुख कारण हैं।
आयु वर्ग की दृष्टि से देखें तो 25-40 वर्ष की आयु वर्ग में तलाक की दर सबसे अधिक है क्योंकि वैवाहिक संबंधों में आपसी लगाव शुरुआती दौर में उत्पन्न नहीं हुआ रहता है और साथ में एक दूसरे के विकल्प आसानी से मिलने का संभावना बनी रहती भी। हालांकि इधर हाल फिलहाल में प्रौढ़ावस्था में तलाक के मामले भी तेजी से बढ़े हैं। बच्चों के बड़े होने और परिवार के नाम पर सिर्फ पति-पत्नी के बचे रहने की प्रक्रिया अक्सर जोड़ों के लिए अपने रिश्ते की स्थिति का आकलन करने के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकती है। 'खाली घोंसला सिंड्रोम' की स्थिति मे दंपति माता-पिता की ज़िम्मेदारियों मे कमी आने के कारण विवाह के शुरुआती दिनों की तरह फिर से अकेले हो जाते हैं । ऐसे में कुछ तो इस समय का आनंद लेते हैं परंतु कुछ दंपति वैवाहिक संबंधों में पहले से व्याप्त समस्याओं को उभार लेते हैं ,जिन्हें पहले पारिवारिक दायित्वों में अनदेखा कर दिए थे। पारिवारिक न्यायालय लखनऊ के अनुसार वर्ष 2022 में 50-60 वर्ष आयु वर्ग के 400 तथा 60-70 वर्ष आयु वर्ग के 65 मामले तलाक के आवेदन आये।
वैवाहिक संबंधों को बचाने का दायित्व पहले परिवार और समाज का हुआ करता था परंतु संयुक्त परिवारों के टूटने और बढ़ते एकल परिवारों ने परिवार और समाज का नैतिक और सामाजिक दायित्व दबाव कम कर दिया है। ज्यादातर लोग अब व्यक्तिगत स्तर पर निर्णय लेने लगे हैं। विवाह परिवार या समाज कराता था तो उसको बचाने का दायित्व और जिम्मेदारी भी परिवार और समाज की थी परंतु प्रेम विवाहों के दौर में कोई सामाजिक बंधन नहीं रह गया है। हालांकि न्यायालय भी अभी भी आसानी से तलाकों को मंजूरी नहीं दे रही है बल्कि वह भी मध्यस्थता केंद्रों के माध्यम पति-पत्नी के रिश्तों को बचाने की कोशिश करती है। जब भी कोई केस किसी कोर्ट के सामने तलाक के लिए दायर किया जाता है तो दोनों ही पक्षों को मध्यस्थता केंद्र भेजा जाता है , जिससे कि वहां पर उनके आपस के विवाद बातचीत के जरिए खत्म किया जा सके और वे लोग फिर से पति-पत्नी की तरह अपना जीवन यापन कर सकें। ऐसा करने से उनके बीच वाद-विवाद खत्म होता है और तलाक तक बात नहीं जाती और साथ ही कोर्ट के सामने पेंडिंग मुकदमों में भी कटौती आती है। अक्सर यह देखा गया है की पति-पत्नी के बीच के विवाद किसी मुद्दे पर आधारित नहीं होते बल्कि छोटी-छोटी पर आधारित होते हैं और समझाने-बुझाने से उनके बीच के वाद-विवाद को खत्म किया जा सकता है।
तलाक के निरंतर बढ़ते मामले एक बड़े सामाजिक बदलाव की ओर संकेत कर रहे हैं। हालांकि अभी भी भारत में तलाक की दर दुनिया भर में सबसे कम है , परंतु जिस तीव्र गति से इनमें वृद्धि हो रही है, उससे क्या यह आशंका नहीं कि भविष्य में हम पश्चिमी देशों के बराबर खड़े हो जाएंगे? यदि ऐसा हुआ तो इसका बुरा असर समाज के साथ-साथ देश पर भी पड़ेगा। सामान्यत संबंध विच्छेद की सबसे अधिक पीड़ा बच्चों के हिस्से में आती है। एकल परिवार में पले लड़कों में निष्क्रिय रहने की प्रवृत्ति होती है और लड़कियों में अवसाद एवं भटकाव की आशंका काफी अधिक बढ़ जाती है। लंदन की किंगस्टन यूनिवर्सिटी में हुए एक रिसर्च के अनुसार तलाक लेने के पांच साल बाद पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा खुश रहती हैं। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमजोर महिला भी तलाक के बाद खुश थी क्योंकि तलाक के बाद उन्हें खुलकर जीने का मौका मिला था। इसका सबसे बुरा असर यह पड़ रहा है कि जोड़े अब विवाह के बजाय लीव इन रिलेशनशिप में रहना ज्यादा पसंद करने लगे हैं जिसमे कोई आपसी उत्तरदायित्व नहीं है और जब चाहें अलग हो जायें, कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं और कोई पारिवारिक दायित्व नहीं । परंतु इससे विवाह नाम की संस्था की समाप्ति का डर है और परिवार का तो अंत ही हो जाएगा। यह भारतीय समाज के लिए बहुत बड़ा आघात होगा।
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