बुंदेलखंड में जलवायु परिवर्तन
इस साल गर्मियों के मौसम में बुंदेलखंड में बांदा का तापमान 49 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया था। पिछले 35 सालों में यह तीसरी बार है , जब बांदा में तापमान 49 डिग्री पहुंच गया। पहली बार वर्ष 1981 में और इसके बाद 16 मई 2022 को यहां का तापमान 49 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। उस समय बांदा, प्रदेश का सर्वाधिक गर्म और देश में सर्वाधिक तापमान वाला तीसरा शहर था। जाहिर है कि बुंदेलखंड में गर्मियों के मौसम में तापमान बड़ी तेजी से बढ़ने लगा है। वर्षा के मामले में बुंदेलखंड हमेशा से कमी वाला क्षेत्र रहा है। यहां लगभग 1 हजार मिमी वार्षिक वर्षा होती है, जिसमें से लगभग 90% जुलाई और अगस्त के छोटी सी अवधि में होती है। सर्दियों के संबंध में बुंदेलखंड में एक कहावत है कि “दशहरा से दसरैंया भर, दिवाली से दिया भर, ग्यारस से फांक भर और संक्रांति से गाड़ी भर ठंड आती हैं।” लेकिन अब इस प्रकार की सर्दी का मौसम यहां नहीं रहता है।एक ओर इसकी अवधि घट गई है, लेकिन दूसरी तरफ तीव्रता बढ़ गई है। पिछले साल सर्दियों में चित्रकूट मंडल में तापमान 4 डिग्री तक नीचे गिर गया था। जाहिर है कि इस क्षेत्र के जलवायु में निरंतर परिवर्तन हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन से तात्पर्य किसी भी क्षेत्र विशेष में लंबे समय तक तापमान और वर्षा इत्यादि की औसत स्थितियों में होने वाले परिवर्तन से है। नासा के अनुसार पृथ्वी की सतह निरंतर साल दर साल गर्म हो रही है और सबसे ज्यादा गर्म वर्ष पिछले 20 वर्षों में हुए हैं। जलवायु खतरों को लेकर क्रास डिपेंडेंसी इनीसियेटिव द्वारा पहली बार किए गए विश्लेषण में गंभीर जलवायु खतरों वाले दुनिया के शीर्ष 50 क्षेत्रों में भारत के उत्तर प्रदेश सहित नौ राज्य भी शामिल हैं। यूं तो ग्लोबल वार्मिंग वैश्विक समस्या बन रही है परंतु बुंदेलखंड क्षेत्र इस लगातार हो रहे परिवर्तन की वजह से होने वाले मौसमी मार को झेल रहा है। इसके पीछे इसकी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और भूगर्भीय संरचना है। यहां होने वाली वर्षा अत्यधिक परिवर्तनशील और अनिश्चित होती है, जिस के चलते अकाल, सूखा और बाढ़ आती ही रहती है। जलवायु के प्रति संवेदनशील क्षेत्र होने के कारण बुंदेलखंड को तापमान में वृद्धि और अनियमित वर्षा का सामना करना पड़ रहा है। मौसम विज्ञानियों ने पिछले तीस वर्षों में अठारह वर्षों के सूखे के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया है।
बुंदेलखंड में वर्षा के पिछले 70 सालों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि इस क्षेत्र में प्रत्येक दो साल सूखा के बाद एक साल सामान्य बारिश और फिर अगले साल अत्यधिक बारिश का ट्रेंड बन रहा है । इतना ही नहीं बारिश के दौरान ड्राई स्पैल अर्थात एक सप्ताह तक वर्षा न होने की घटनायें पहले दो से तीन बार होती थीं, परंतु पिछले एक दशक में इसकी संख्या बढ़कर पांच से छह हो गयी है। 1950 के दशक में बुंदेलखंड में 1 हजार मिमी औसत वार्षिक वर्षा होती थी, जिसमें 250 मिमी की कमी के साथ अब यह 750 मिमी वार्षिक तक रह गया है। एक शोध के अनुसार बुंदेलखंड क्षेत्र में जमीन की अंदरूनी परत पूरी तरह से सूख चुकी है, खास कर के चित्रकूट में स्थिति और गंभीर बनती जा रही है। ऐसे में कहीं बारिश और कहीं सूखा की स्थिति ने किसानों के संकट को गहरा कर दिया है। पर्यावरणविदों का कहना है कि बारिश के असमान वितरण ही नहीं बल्कि यह क्षेत्र तापमान परिवर्तन के दौर से भी गुजर रहा है। बिलंब से सर्दी की शुरुआत, न्यूनतम तापमान में निरंतर कमी आना, गर्मी के मौसम का जल्द प्रारंभ होकर अधिक समय तक चलना और फिर मानसून आने में विलंब होना, मूलत: मौसम चक्र के बदलाव का ही संकेत है। इस प्रकार का जलवायु परिवर्तन बुंदेलखंड के लिए घातक बन रहा है।
बुन्देलखण्ड में अक्सर भारी वर्षा कुछ ही घंटों में होती है, जिसके चलते पानी को मिट्टी में घुसने के लिए बहुत कम समय मिलता है और ग्राउंड वाटर रिचार्ज नहीं हो पाता है। पठारी क्षेत्र होने के कारण बारिश का पानी जमीन के नीचे जा भी नही पाता है। वैसे भी वर्ष 1901 और 2013 के बीच बुंदेलखण्ड क्षेत्र में प्रति वर्ष 0.49 से 2.16 मिमी बारिश तक की गिरावट की भी प्रवृत्ति देखने को मिली है। पिछले दो दशकों के दौरान मानसूनी बारिश की मात्रा दीर्घकालिक सामान्य मात्रा से आधी हो गई है। यदि कम अवधि के भीतर ज्यादा मात्रा में बारिश होती है तो पानी का भंडारण कम होता है। सूखा, कम बारिश, पानी की कम उपलब्धता और फसल की उपज में कमी का संयुक्त प्रभाव है। मौसम संबंधी सूखे का तात्पर्य लंबे समय तक औसत से कम वर्षा के कारण पड़ने वाले सूखे से है। हाइड्रोलॉजिकल सूखा नदियों में पानी का असामान्य रूप से कम प्रवाह, झीलों, जलाशयों और भूजल के निम्न स्तर है, जो आमतौर पर मौसम संबंधी सूखे के बाद आते हैं और जिसे कृषि सूखा भी कहते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान द्वारा प्रकाशित वर्ष 1901 से 2001 तक के सूखे के अध्ययन से पता चलता है कि बुन्देलखण्ड में पिछले 30 वर्षों में गंभीर सूखे के वर्षों में तेजी से वृद्धि हुई है। 18 वीं और 19वीं शताब्दी में हर 16 साल में सूखा पड़ता था, जो 1968 से 1992 की अवधि के दौरान तीन गुना बढ़ गया और अब यह एक वार्षिक समस्या बन गई है। यूएनसीसीडी के सूखा रिपोर्ट 2022 के अनुसार पिछले दो दशकों की तुलना में वर्ष 2000 के बाद से सूखे की संख्या और अवधि में 29% की वृद्धि हुई है। बुंदेलखंड क्षेत्र में औसतन वाष्पीकरण-उत्सर्जन दर लगभग 16 सौ मिमी है, जबकि वर्षा का स्तर 1 हजार मिमी से कम है। जाहिर है कि वर्षा से ज्यादा वाष्पीकरण तेज धूप और बढ़ते तापमान का परिणाम है। इसका सीधा प्रभाव क्षेत्र में जल की उपलब्धता पर पड़ता है। कठोर चट्टानी इलाके और काली मिट्टी और भूजल के अत्यधिक दोहन, जलवायु परिवर्तन के कारण नियमित सूखे के कारण जल स्तर साल-दर-साल कम हो रहा है। रॉकफेलर फाउंडेशन के एक अध्ययन के अनुसार, 63 प्रतिशत छोटे किसानों के लिए जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी समस्या हैं और 70 प्रतिशत किसानों ने मौसम में इस बदलाव को फसलों के नुकसान और बढ़ती गरीबी का कारण बताया हैं।
कम वर्षा, बढ़ते तापमान , कम शीतकालीन अवधि और सूखे का सीधा संबंध खेती के नुकसान से है। जबकि बुंदेलखंड के लिए कृषि आजीविका का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है। वस्तुत बुंदेलखंड में सूखा जाति और वर्ग आधारित भेदभाव, पानी की अधिक खपत वाली फसलों की ओर बदलाव, पारंपरिक जल संरचनाओं का ह्रास और जलवायु परिवर्तन सहित कई संरचनात्मक कारणों का एक जटिल परिणाम हैं। परंपरागत रूप से इस क्षेत्र में , मोटे अनाज, सरसों, चना और दालों जैसी लंबी जड़ों वाली फसलें उगाई जाती थीं। हरित क्रांति के दौरान बीजों की उच्च उपज देने वाली किस्मों के प्रारंभ होने के बाद बुंदेलखंड में सोयाबीन, कपास और गेहूं जैसी पानी की अधिक खपत वाली फसलें शुरू की गईं, जिससे पहले से ही पानी की कमी वाले इस क्षेत्र में जल संसाधनों पर निर्भरता बढ़ गई। जहां जहां नहरों का जाल बिछा है वहां धान की खेती बढ़ गई है। चित्रकूट के चिल्लीमल, ऊंचाडीह, चमरौहा आदि नहर/नदियों के किनारे बसे गांव धान की खेती में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं, जो पानी की खपत ज्यादा करता है। यह बुंदेलखंड सरीखे जल की कमी वाले क्षेत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। इतना ही नहीं अत्यधिक पानी और रासायनिक खादों के प्रयोग ने पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया, जिससे जल संकट और भी बढ़ गया। बढ़ता वैश्विक तापमान और बेमौसम बारिश फसलों में नई बीमारियों को जन्म दे रही है। हालांकि बीज उत्पादक आठ-दस वर्षों में एक बार रोग प्रतिरोधी किस्मों को बदलते हैं, अब इसे तीन से पांच वर्षों में बदलने की जरूरत पड़ने लगी है। बढ़ते तापमान ने लोगों ने उनके आय के घंटे और स्वास्थय को भी छीन लिया है। जहां न तो वह अधिक तापमान की वजह से पहले की तरह काम कर पाते हैं और न ही खुद को जंगलों के बीच रहकर भी धूप से सुरक्षित रख पाते हैं।इसके अतिरिक्त मानवीय लापरवाही से चंदेलकालीन पारंपरिक 1640 जल भंडारण संरचनाओं में से वर्तमान में मात्र 129 ही बचे हैं। शेष में गाद भर गई हैं तथा वर्षा जल के प्रवेश मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं, जिससे उनमें पानी नहीं आ रहा है। इन पारंपरिक संरचनाओं के बंद होने से भूजल स्तर पर भी असर पड़ा है। वास्तव में वर्ष 2006 से 2016 के बीच बुंदेलखंड के 60 प्रतिशत कुंओं के भूजल स्तर में 4 मीटर की गिरावट देखी गई है। बुंदेलखंड में महोबा जिले में भूजल दोहन सर्वाधिक है, उसके बाद चित्रकूट, ललितपुर और हमीरपुर जिलों में है। क्षेत्र में निरंतर बढ़ती गर्मी के पीछे स्टोन क्रशरों से उठने वाली धूल और नदियों के पाटों में हो रहे अवैध और अनियंत्रित खनन भी है।
जलवायु परिवर्तन में एक बहुत बड़ी भूमिका वन क्षेत्रों में निरंतर हो रही कमी ने निभाई है। एक समय बुंदेलखंड 90 प्रतिशत जंगली क्षेत्र ही हुआ करता था, परंतु निरंतर मानवीय घुसपैठों ने इसका विनाश शुरू कर दिया। वैसे वर्तमान में बुंदेलखंड में वन क्षेत्र 33 प्रतिशत होना चाहिए, जबकि चित्रकूट मंडल में वन क्षेत्र मात्र 2.50 प्रतिशत ही रह गया है। हालांकि इसकी क्षतिपूर्ति के लिए वन विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष पौधारोपण अभियान चलाया जाता है। उसके बाद भी एक दशक में मात्र एक प्रतिशत वन क्षेत्र की वृद्धि हुई है। हालांकि वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार चित्रकूट जनपद में काफी अच्छी प्रगति हुई है। वर्ष 2021 से लगभग 5.86 वर्ग किमी वन क्षेत्र की वृद्धि हुई है ,फिर भी यहां पहाड़ी इलाका होने के कारण और वन क्षेत्र कम होने से जलवायु परिवर्तन तेजी से हो रहा है। सरकार द्वारा बुंदेलखंड में पानी की समस्या से निपटारा पाने के लिए विंध्य प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। यह परियोजना बुन्देलखण्ड और विंध्य क्षेत्रों में घरों तक साफ़ पानी उपलब्ध करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की एक पहल है।
यद्यपि यह वैश्विक समस्या है फिर भी अपनी विषम भौगोलिक संरचना और अवस्थिति के बावजूद बुंदेलखंड में हो रहे असामान्य जलवायु परिवर्तन को रोका जा सकता है । इसके लिए वनों के क्षेत्र में वृद्धि, पारंपरिक जल संरचनाओं के जीर्णोद्धार और संरक्षण, क्षेत्रीय पर्यावरण अनुकूल फसलों का उत्पादन, जल संरक्षण, भू जलस्तर वृद्धि के उपायों को अपनाना, नदियों को आपस में जोड़ने आदि उपायों को अपनाया जा सकता है।
Comments
Post a Comment