चित्रकूट के राम


धनतेरस के दिन से भैयादूज तक भगवान राम की तपोस्थली चित्रकूट में चलने वाले पांच दिवसीय मेला प्रारंभ हो गया है। यहां मंदाकिनी नदी में रामघाट पर दीपदान का विशेष महत्व है। मान्यता है कि लंकापति रावण पर विजय प्राप्ति पश्चात अयोध्या वापस लौटते समय भगवान श्री राम ने यहां दीपदान किया था। यह एक तरह से श्रीराtम द्वारा उस स्थान को सम्मानित करने के समान है जहां उन्होंने अपने वनवास काल का सर्वाधिक समय व्यतीत किया था। चित्रकूट में उनके निवास काल के पर्णकुटी के संबंध में 

 गोस्वामी तुलसीदासजी  ने रामचरितमानस में लिखा है..      “राम लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।

जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।”

       अर्थात लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयंत सहित बसता है। यदि अयोध्या को राम की जन्म भूमि होने का गौरव मिला है तो चित्रकूट वह स्थान है जहां राम ने अपनी तपस्या के बल पर भगवान राम होने का रास्ता अख्तियार किया । कष्टों में ही तपकर मनुष्य का आत्मबल, चेतना, साहस और अंदरूनी गुणों का निखार आता है। जब प्रयाग में भारद्वाज आश्रम में राम ने महर्षि भारद्वाज से पूछा कि वनवास काल व्यतीत करने के लिए उचित स्थान के बारे में बतायें तो महर्षि भारद्वाज ने चित्रकूट का नाम  लिया था,  क्योंकि यह स्थान हर दृष्टिकोण से शांत, सुरक्षित और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर था। रामचरितमानस में भी महर्षि वाल्मीकि ने कहा कि ”चित्रकूट गिरि करहूं निवासू जहां तुम्हारी सब भांति सुपासू।

                 मंदाकनी नदी के किनारे बसे  चित्रकूट में एक समय अशोक(संस्कृत भाषा में अशोक को चित्र कहते हैं ) के पेड़ बहुत हुआ करते थे,जिसके कारण इस स्थान का नाम चित्रकूट पड़ा। कुछ लोगों के अनुसार यहां  चित्रा नामक ने तपस्या की थी इसे संतो की नगरी और ब्रह्मपुरी  भी कहा जाता है।  चित्रकूट संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ पर्वतीय दृश्यों का अनुपम केंद्र। कुछ लोग इसे “चितर” यानि चीतल (हिरण) से भी जोड़ते हैं। प्राचीन काल में चित्रकूट कौशल साम्राज्य के अंतर्गत आता था, जहां की राजकुमारी भगवान राम की माता कौशल्या थी।  भगवान राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ पावन चित्रकूटगिरी पर अपने वनवास का साढे़ 11 वर्ष व्यतीत किया था। भगवान राम की तपोभूमि चित्रकूट अनादि काल से वाल्मीकि समेत तमाम महान ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रही है। इसी पर्वत पर तप और साधना कर प्रभु राम ने आसुरी ताकतों से लड़ने की दिव्य शक्तियां प्राप्त की थीं। यहां का एक- एक स्थान भगवान राम के रंगों में रंगा हुआ है। मंदाकिनी नदी तट स्थित राम घाट पर प्रभु राम नित्य स्नान किया करते थे। इसी घाट पर राम - भरत मिलाप मंदिर है। यही पर “चित्रकूट के कोतवाल”  कहे जानेवाले मत्त गजेंद्र नाथ का मंदिर है। रामघाट से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनारे जानकी कुण्ड स्थित है, जहां  सीताजी स्नान करती थी। जानकी कुण्ड के समीप ही राम जानकी मंदिर, रघुवीर मंदिर और संकट मोचन मंदिर है। जानकी कुण्ड से कुछ दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनारे ही स्फटिक शिला स्थित है। माना जाता है कि इस शिला पर सीता के पैरों के निशान मुद्रित हैं। कहा जाता है कि जब वह इस शिला पर खड़ी थीं तो जयंत ने काक (कौआ) रूप धारण कर उनके  पैरों में चोंच मारी थी। कामदगिरि परिक्रमा पथ पर लक्ष्मण पहाड़ी है, जहां लक्ष्मण निवास करते थे । नगर से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर गुप्त गोदावरी स्थित हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कभी गोदावरी नदी स्वयं यहां प्रकट हुई थी। पहाड़ी के शिखर पर स्थित हनुमान धारा में हनुमान की एक विशाल मूर्ति है। मूर्ति के सामने तालाब में झरने से पानी गिरता है। कहा जाता है कि यह धारा श्रीराम ने लंका दहन से आए हनुमान के आराम के लिए बनवाई थी। इसी पहाड़ी के शिखर पर ही “सीता रसोई” है। वनवास काल में ही जब भरत अयोध्या वासियों के साथ श्रीराम को मनाने चित्रकूट आए थे, तो अपने साथ ही में भगवान राम का राज्याभिषेक करने के लिए समस्त तीर्थों का जल भी लाये थे। लेकिन भगवान राम वनवास के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। इस पर भरत काफ़ी दुखी हुए और अपने साथ लाये समस्त तीर्थों के जल को वहीं के कुए में डाल दिया, जिसे  “भरतकूप “ कहा जाता है।

         कहा जाता है कि जब भगवान राम चित्रकूट को छोड़कर जाने लगे तो चित्रकूट पर्वत ने भगवान राम से प्रार्थना  की कि “हे प्रभु आपने इतने वर्षों तक यहां वास किया, जिससे ये जगह पावन हो गई। लेकिन आपके जाने के बाद मुझे कौन पूछेगा” । तब प्रभु राम ने  पर्वत को वरदान दिया कि अब आप “कामद” यानि मनोकामनाओं की पूर्ण करने वाले हो जाएंगे। जो भी आपकी शरण में आयेगा, उसके सारे दुःख -विषाद नष्ट होने के साथ-साथ सारी मनोकामना पूर्ण हो जाएंगी।” आज यह  कामदगिरी पर्वत के नाम से जाना जाता है और प्रभु राम स्वयं कामतानाथ बन गये। इस अलौकिक पर्वत की महिमा गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में भी की हैं। उन्होंने लिखा है “

“कामदगिरि भे रामप्रसादा, अवलोकत अप हरत विषादा”।          

 यानि जो भी इस पर्वत के दर्शन करेगा, उसके सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।  वायु पुराण में भी चित्रकूट पर्वत की महिमा का उल्लेख है। एकबार सुमेरू पर्वत के बढ़ते अहंकार को नष्ट करने के लिए वायु देव उसके शिखर को उड़ा कर चल दिये थे। किंतु उस शिखर पर चित्रकेतु ऋषि तपस्या कर रहे थे। शाप के डर से थरथराते वायु देव को  ऋषि चित्रकेतु ने कहा कि मुझे इससे उपयुक्त स्थल पर ले चलो। वायु देव जब  इस भूखंड पर आये तो ऋषि ने कहा कि इस सुमेरु शिखर को अब यहीं स्थापित कर दो। चित्रकेतु ऋषि के नाम से ही इस शिखर का नाम चित्रकूट गिरि पड़ा था। इस पावन भूमि पर महर्षि अत्रि, अनुसूया, दत्तात्रेय, महर्षि मार्कंडेय, सारभंग, सुतीक्ष्ण और विभिन्न अन्य ऋषियों और संतों ने यहां तप किया है। आज भी इनके आश्रम यहां विद्यमान है। यहां से लगभग  साठ किमी दूर स्थित ऋषियन आश्रम के बारे में कहा जाता  है कि वहां से एक गुप्त रास्ता सीधे चित्रकूट तक आता है, जिसे अब सुरक्षा कारणों से बंद कर दिया गया है। इस होकर राम जानकी लक्ष्मण  यहां आये थे। चित्रकूट से लगभग बीस किमी दूर वाल्मीकि आश्रम में निर्वासन काल में सीता ने लव–कुश को जन्म दिया था और वाल्मीकि रामायण यहीं लिखी गई थी। वस्तुत चित्रकूट के बारे में एक मान्यता है कि सभी देवी-देवताओं का निवास अभी भी यहां पर है। इस संबंध  में कथा है कि जब श्री राम ने यहां दशरथ घाट पर अपने पिता का श्राद्ध समारोह किया तो सभी देवी-देवता शुद्धि भोज ( तेरहवीं) में भाग लेने चित्रकूट आए। वे इस स्थान की सुंदरता से इतने मोहित हो गए  कि वापस ही नहीं जाना चाहते थे, उपर से भगवान राम की उपस्थिति में इसमें एक आध्यात्मिक आयाम जुड़ गया था। कुलगुरु वशिष्ठ ने भगवान राम की इच्छा के अनुसार यज्ञ पश्चात  विसर्जन (प्रस्थान) मंत्र ही नहीं बोले।  इस प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने इस जगह को अपना स्थायी आवास बना लिया।

       पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी स्थान पर ऋषि अत्रि और सती अनुसुइया ने तपस्या  की थी। यहीं उनका आश्रम भी था, जहां राम अपने भ्राता और पत्नी के साथ उनके दर्शन करने गए थे। कहते हैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने चित्रकूट में ही सती अनसुइया के घर जन्म लिया था। तुलसी दास के जन्म स्थान राजापुर में रामचरितमानस की मूल प्रति भी रखी हुई है। चित्रकूट के लोकप्रिय कामतानाथ और भरत मिलाप मंदिर भी यहीं स्थित है। इस स्थान का पहला ज्ञात उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। महाभारत में चित्रकूट और मंदाकिनी का तीर्थ रूप में वर्णन किया गया है-

‘चित्रकूट जनस्थाने तथा मंदाकिनी जले,

 विगाह्य वै निराहारो राजलक्ष्म्या निषेव्यते,।

      

श्रीमद्भागवत,अध्यात्मरामायण,रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड) में चित्रकूट का बड़ा मनोहारी वर्णन किया गया है। जैन साहित्य भगवती टीका में चित्रकूट को 'चित्रकुड़' कहा गया है। बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर में भी चित्रकूट की पहाड़ी का उल्लेख है। फादर कामिल बुल्के ने भी अपनी पुस्तक रामकथा में ‘चित्रकूट-महात्म्य  का उल्लेख किया है। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंश’ में इस स्थान का सुंदर वर्णन किया है। मेघदूत महाकाव्य में यक्ष के निर्वासन का स्थान चित्रकूट (रामगिरी) था।  उन्होंने अद्भुत प्रेम और तादात्म्य की भावना से चित्रकूट के शब्द-चित्र खींचे है। रामचरित मानस, कवितावली, दोहावली और विनय पत्रिका इत्यादि सभी मे तुलसीदास और चित्रकूट के बीच एक गहन व्यक्तिगत बंधन प्रदर्शित होता है। उन्होंने चित्रकूट  में भगवान राम की पूजा और उनके दर्शन की लालसा में काफी समय व्यतीत किया। अंततः हनुमान जी की कृपा  से उन्हें उनके आराध्य प्रभु राम के दर्शन मौनी अमावस्या के दिन प्राप्त हुए।

“चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर ।

तुलसीदास चंदन घिसे तिलक देत रघुवीर।”

   उनके मित्र, प्रसिद्ध हिंदी कवि रहीम अर्थात अब्दुर रहीम खान ए खाना जो सैनिक, राजनीतिज्ञ, संत, विद्वान, कवि तथा अकबर के नव-रत्नों में से एक थे, ने यहां कुछ समय बिताया था। रामचरितमानस  के बारे में रहीम लिखते हैं “‘रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्रान, हिन्दुअन को वेद सम, तुरकहिं प्रगट कुरान।”

 सन् 1683  में मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने जब अपनी सेना को चित्रकूट के मंदिरों को तोड़ने का फरमा़न जारी किया, तब उसकी आधे से ज़्यादा सेना बीमार पड़ गई, बाद में महंत बालकदास की शरण में जाने पर उसकी सेना को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हुआ। कहते  हैं कि इसके बाद औरंगज़ेब ने मन्दाकिनी नदी के तट पर बालाजी महाराज के मंदिर का निर्माण करवाया और साथ ही मंदिर को बिना लगान के 330 बीघा कृषि योग्य ज़मीन भी दी थी। ताम्र पत्र में टंकित औरंगज़ेब का यह फरमा़न आज भी इस मंदिर में रखा हुआ है। हालांकि चित्रकूट से लगभग 25 किमी दूर स्थित चर गांव स्थित सोमनाथ मंदिर के ध्वंसावशेष इसकी पुष्टि नहीं करते कि औरंगज़ेब का कहर चित्रकूट के मंदिरों पर नहीं पड़ा था। 

  वस्तुत भारतीय समाज में राम उस वट-वृक्ष की भांति है, जिसकी छत्रछाया में भक्त, आलोचक, आम, खास, आराधक, विरोधक, सम्बोधक सबके- सब न जाने कितने पीढ़ियों से एक साथ चले आ रहे हैं। ‘राम’ भारतीय चिंतन परंपरा का सबसे मनपसंद चेहरा है। स्वाभाविक रूप से भारतीय समाज को जिसतरह अयोध्या का राजा राम प्यारा है उसी तरह चित्रकूट का वनवासी और तपस्वी राम भी प्यारा है। इस गहन आस्था को दीपावली के इस दीपदान मेले में देखा जा सकता है, जहां अयोध्या के साथ साथ संपूर्ण चित्रकूट राममय बना पड़ा है।


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