मैथिल संस्कृति

हिमालय की तराई में नेपाल  के दक्षिण, कोसी नदी से पश्चिम , गंडक नदी  से पूर्व और गंगा नदी से उत्तर  स्थित मिथिला एक सांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में अपनी प्राचीन परंपरा और धरोहर को अक्षुण्ण बनाए हुए है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा , ऐतिहासिक गौरव एवं सांस्कृतिक परंपराओं से समृद्ध है। मिथिला के  सामाजिक- सांस्कृतिक जीवन में लौकिक एवं वैदिक संस्कृति का समन्वय देखने को मिलता  है। मैथिली समाज संस्कारो से परिपूर्ण तथा अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ जीने की कला को जिंदादिली के साथ जीता है। समाज में विभिन्न  धार्मिक परंपराओं, रीति रिवाजों , पंथ संप्रदायों यथा शैव, शाक्त, वैष्णव, और अन्य आपसी प्रेम व स‌द्भाव के साथ  रहते आये हैं। मिथिला क्षेत्र की मूल भाषा मैथिली है और इसके बोलने वालों को मैथिल कहा जाता है। मिथिला को तिरहुत, तिरभुक्ति, और मिथिलांचल के नाम से भी जाना जाता है।समग्र  रुप में मैथिल संस्कृति को विशिष्ट तौर पर  विदेह राज जनक एवं सीता से संबंधित  माना जाता है। संस्कृति के हरेक अवयव में राम सीता समाहित है। हालांकि मैथिल संस्कृति को बंगाली संस्कृति, असमिया संस्कृति और नेपाली संस्कृति से प्रभावित या उस परंपरा को समाहित करते हुए माना जाता है परंतु इसके बावजूद मैथिली संस्कृति अपने आप में अनूठी और विशिष्ट है। 

मिथिला नाम राजा निमि के पुत्र मिथि के नाम पर पड़ा हुआ  माना जाता है। विदेह राज्य का उल्लेख पहली बार यजुर्वेद संहिता में किया गया है। मिथिला का उल्लेख बौद्ध जातक, ब्राह्मण, पुराणों (बृहद्विष्णु पुराण में विस्तार से वर्णित) और रामायण और महाभारत जैसे विभिन्न महाकाव्यों में किया गया है।



                        देसिल बयना  अर्थात अपनी देसी भाषा, वस्तुएं, सामग्री, या रचनाओं का समावेश करते हुए अपनी भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक विकास मैथिली भाषा की प्रगति और स्वीकार्यता को पुष्ट करता है। अपनी  विशिष्ट  मातृभाषा, अपनी कला, संस्कृति आदि पर गर्व  करना इस क्षेत्र की विशिष्टता है।  लोकवृत पर आधारित जनसामान्य की संस्कृति को लोक संस्कृति कहा जाता है। इसमें सामान्यतः पारम्परिक लोकविश्वास, मिथकीय अवधारणा, आचार-विचार, चास -बास, भोजन , पर्व-त्योहार, राग-भास, नाच-गान,  लोकवाद्य या लोक-क्रीड़ा इत्यादि सम्मिलित होता है। मिथिला  मे पुरातात्विक उत्खनन के माध्यम से प्राप्त भू-देवी, ग्राम्य देवी -देवताओ की मृणमूर्तियाँ पूजा उपासना के प्रमाण है। मिथिलांचल में भी अन्य प्राचीन और विशिष्ट संस्कृतियों के समान प्राकृतिक चीजों जैसे नदी, नाग, वृक्ष, आग, पशु-पक्षी आदि का पूजन करना धार्मिक परंपराओं का अंग रहा है। इसका परिष्कृत रूप गंगा,कमला,कोशी,जीवछ, लखनदेई आदि नदियों में देवीत्व, नागपंचमी, नागभाग, वटसावित्री में बड़ का पेड़, ब्रहबाबा, पीपल वृक्ष आम-महुआ का विवाह, मधुश्रावणी आदि की परिकल्पना एवं अनुष्ठानिक कृत्य, तत्संबंधी व्रतविधान आदि लौकिक आचार- विचार अपने प्राचीन  समाज की परंपरा को ही उद्घाटित करता है। मिथिला का लोकधर्म मूलतः ब्रह्म और भगवती पर  केन्द्रित है। लोक ब्रह्म अर्थात् सर्वजातीय एवं गाँवों के संरक्षक देवता तथा मातृब्रह्म अर्थात देव माता एवं बुढ़िया माई हैं । हरेक गांव और जातीय समाज का अपना अपना ब्रह्म बाबा, भगवती, एवं जातीय देवी -देवता हैं। ज्यादातर ब्रह्म बाबा  अश्वारोही रूप में और मातृब्रह्म पिण्ड रूप में पूजित है। सामान्य लोक विश्वास एवं  परंपरा के अनुसार मिथिला के समस्त लोकदेवी-देवताओं का जन्म या उद्भव इसी ब्रह्मपिण्ड से  हुआ है। मातृब्रह्म अर्थात भगवती, बुढ़िया माई, गढ़ी माई, काली थान इत्यादि का पूजन वस्तुतः आर्येत्तर संस्कृति की देन मानी जाती है।  मोतीपुर, मुजफ्फरपुर के कथैया  ग्राम का  विशाल ब्रह्मस्थान को मिथिला व वैशाली के समस्त ब्रह्मों का सर्वोच्च  माना जाता है। यहां पर मिथिला के सभी  अकाल मृत ब्राह्मण ब्रह्म के रूप में पुजे जाते है। वस्तुत : प्रत्येक ब्रह्म का क्षेत्र व गांव के हिसाब से अपना नाम और अपनी लोककथा प्रचलित है। कुछ लोकदेवताओं का अपना समाज भी है  जो चौदह देवान के रूप में पिण्ड-पूजित होता हैं।


          किसी समाज या संस्कृति में जब बिना किसी ताम-झाम व प्रदर्शन के अपनी  विशिष्ट कला संस्कृति शैली को चित्र, संगीत, नृत्य आदि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो वह लोककला कहलाती हैं।  मिथिला की लोक कला सौन्दर्यबोधी लोकचिन्तन का प्रतिफल प्रतीत होता है। क्षेत्र  के थान-गहबरों और सार्वजनिक पूजास्थलों में पूजित लोकदेवी-देवताओं की रंग-बिरंगी मृण्मूर्तियाँ हो या आनुष्ठानिक पूजापात्र हो  या मांगलिक अरिपन या कलात्मक भितिचित्र हो, काठ-बाँस, मूँज, सिक्की, कुश एवं कोइढ़ला का कलात्मक सृजन हो अथवा लोकगीत-संगीत और नृत्य-नाट्य से परिपूर्ण कलाएँ हो, सर्वत्र मिथिला की पारम्परिक लोककलाओं का संसार फैला हुआ दिखता है।  लोककलाओं में मिट्टी की मुर्तिकला सर्बसे प्राचीन है। कैमूर का गुहाचित्र और चेचर (वैशाली), बलिगजगढ़ (मधुबनी), करियन (समस्तीपुर) आदि की मृण्मूर्तियाँ  प्राचीनतम साक्ष्य हैं ,जिसमें मातृदेवियों की मृण्मूर्तियाँ सर्वप्राचीन हैं। अन्य संस्कृतियों की भांति मैथिल संस्कृति भी मातृसंस्था को सर्वोपरि मानती है तथा इसकी झलक लोक संस्कृति, पूजन, गायन, चित्रों शैली में प्राप्त है।

             मिथिला की संस्कृति  की विशिष्टता इसकी चित्रण शैली है जिसे  सामान्य रूप से मधुबनी पेंटिंग के रूप में जाना जाता है। यहां की लोक चित्रकला मधुबनी, जनकपुर और हरिजन चित्र शैलियों के रूप में विकसित है, जो मूल रुप  से जातीय समाजों और क्षेत्रीय परंपराओं पर आधारित है। वस्तुत मधुबनी चित्रकला शैली अभिजात्य अर्थात कायस्थ, ब्राह्मण, राजपूत कला शैली मानी जाती है।  जनकपुर शैली नेपाल के तराई की मधेसी शैली है और इन सबसे भिन्न हरिजन शैली मुख्य  रूप से अनभिजात्य अर्थात समाज के निचले तबके दुसाध, चमार जातीय शैली की लोकचित्र कला है। हालांकि इनका कलात्मक स्थापत्य लगभग एक समान हैं। मधुबनी लोक चित्रकला शैली श्रोत्रिय (विशिष्ट गोत्रीय) शैली तंत्र आधारित है। यहाँ लोकचित्रण की परपंरा प्राचीनकालीन है जो मूलतः भित्तिचित्रण के रुप में थी । मिथिला लोक चित्रकलामुख्य रुप  से  भित्तिचित्रण, पटचित्रण तथा  भूमि चित्रण के रूप में विकसित हुई है।  भित्तिचित्रण में मुख्य रुप से कोहबर माना जाता है। कोहबर मुख्यतः विवाह के समय लिखा जाता है। कोहबर चित्रण की आकृतियाँ अर्थपूर्ण है और यह वंशवृद्धि प्रेम के प्रतीक चिह्नों से भरपूर होती हैं। कोहबर चित्रण में फूल, पत्ता, पक्षी, सूर इत्यादि आकृतियां समाहित होती हैं। कोहबर का रेखांकन अनार की कलम या रुई से किया जाता है। भूमिचित्रण  के रूप में अरिपन  है जो आधुनिक रंगोली का ही एक रूप है। वस्तुत: अरिपन  संस्कृत शब्द अलेपन से लिया गया है जिसका मतलब धब्बा लगाना होता है। अरिपन शुद्धिकरण के उद्देश्य से जमीन पर गोबर और मिट्टी का लेप करके उसपर विशिष्ट चित्रों एवं ज्यामितिक डिजाइनों के माध्यम से सजाया जाता है। प्रारंभ में अरिपन को खेती योग्य भूमि को उपजाऊ और उपजाऊ बनाने के लिए देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बनाया जाता था। तुलसीदास के रामचरितमानस में भी इन दीवार और फर्श चित्रों का  वर्णन उपलब्ध है। मूल रूप से यह कला केवल झोपड़ियों की मिट्टी की दीवारों और फर्श पर ही बनाई जाती थी। लेकिन अब इन्हें कपड़े, हाथ से बने कागज़ और कैनवास पर भी बनाया जाता है। अरिपन बनाने के लिए चावल और पानी का पेस्ट बनाया जाता है जिसे "पिठार" कहते हैं। लाल रंग के लिए सिंदूर और स्थानीय लाल मिट्टी, पीले रंग के लिए हल्दी और फूलों की पंखुड़ियाँ, हरे रंग के लिए पत्ते, काले रंग के लिए कालिख और नीले रंग के लिए कुचले हुए जामुन का उपयोग अरिपन को सजाने के लिए किया जाता है। वस्तुत: मिथिला में किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ अरिपन के बिना नहीं होता है। 

      मिथिला लोक चित्रकला मुख्य रूप से शैव, शाक्त और वैष्णव धार्मिक आख्यानों एवं चरित्रों पर आधारित हैं। रामायण और महाभारत से सम्बन्धित जैसे राम सीता विवाह, सीता स्वयंवर, रावण वध, द्रौपदी चीरहरण, कालीय मंदन, गोर्वधन धारण, रासलीला, इत्यादि चित्र बनाए जाते हैं । देवी जगदम्बा,  दुर्गा काली, छिन्नमस्तिका, काली,  चामुण्डा, भैरवी, शिव पार्वती, गणेश, सरस्वती, अर्द्धनारीश्वर इत्यादि विषयों पर भी चित्र बनाए गए हैं। इन चित्रों में चटकीले रंगों, सजीव चित्रों और विस्तृत रूप-आकृतियों से संस्कृति की सम्पन्नता का दर्शन होता है। 

चित्रों में खाली जगहों को भरने के लिए फूलों, पत्तियों, पशु-पक्षियों और ज्यामितीय डिज़ाइन प्रयोग में लाए जाते हैं। चित्रों में रंग भरने के लिए अधिकांशतः पत्तियों, फूलों और फलों से निकाले गए प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता है। 1934 के भीषण  भूकंप के समय इस विशिष्ट चित्र कला शैली की अंग्रेजो द्वारा खोज के बाद यह विश्व कला पटल पर अपनी पहुंच बना सका परंतु इसे पहचान तो वर्ष1969 में मिल पाई जब सर्वप्रथम अधिकारिक रूप से इस कला की प्रथम चितेरी सीता देवी को बिहार सरकार ने राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। उसके बाद ममता देवी, जगदम्बा देवी आदि कई ऐसी कलाकार हैं,  जो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। 

        मिथिला की लोकनृत्य की आदिम उ‌द्भावना गुहाचित्रों में उपलब्ध है। भगता, नारदी, कमला, विदापत, रास, पमरिया, बक्खो, डम्फा, बसुँली, झिझिया, झूमर, झमटा, झरनी आदि लोकनृत्यों के परम्परावशेष उपलब्ध हैं। देवी-देवताओं को रिझाने के भगता नृत्य , विदापत, कीर्तनियाँ, रास और नारदी वैष्णवधर्मी नृत्य, झूमर, झमटा, फाग, चांचर आदि ऋतु नृत्य, पमरिया और बक्ख का बधैया नृत्य ,तांत्रिक नृत्य ,झिझिया ,डम्फा- बसुली, चमर-नटुआ ,धोबिन-बटुआ आदि जातीय नृत्य के अतिरिक्त मुसहरों के मृदंग और मलाहों के कमलानृत्य विशिष्ट है। झिझिया ज्यादातर दशहरे के समय , विजय की देवी दुर्गा भैरवी को समर्पण में किया जाता है। झिझिया में  महिलाएं अपने सिर पर मिट्टी से बनी लालटेन रखकर नृत्य करती हैं।यह मुख्य  रूप से दरभंगा , मुजफ्फरपुर, मधुबनी और  पड़ोसी जिलों में किया जाता है। बेगूसराय , खगड़िया, कटिहार में धुनो-नाच किया जाता है। यह ज्यादातर दुर्गा पूजा और कालीपूजा के दौरान शंख-ढाक ध्वनि के साथ किया जाता है।एक विशिष्ट लोकनृत्य डोमकच भी है।

          मिथिला में जहां एक ओर वैष्णवधर्मी लोकनाट्यों की परम्परा है तो दूसरी ओर लोकधर्मी नाट्यों की भी है। वैष्णवधर्मी लोकनाट्यों में विदापत ,कीर्त्तनियाँ नाटक , नारदी, रास कृष्णखेला आदि तथा लोकधर्मी नाट्यों में जट-जटिन, सामा चकेवा, डोमकच, सल्हेस, लोरिक, बसावन, नटुआ-दयाल, गोपीचन, कतका - कुमर, हरिलता, सती- बिहुला आदि  है। जाट जटिन नृत्य मिथिला और कोशी क्षेत्र  का सबसे लोकप्रिय लोक नृत्य है। यह नृत्य शैली विवाहित जोड़े के संवेदनशील प्रेम और विवाद के चित्रण में अद्वितीय है। सामान्यत यह मानसून में चांदनी रातों में एक जोड़े में किया जाता है। इस नृत्य  में गरीबी, दुख, प्रेम, प्रेमियों/पति और पत्नियों के बीच तू तू मैं मैं जैसे अन्य संबंधित विषयों  कै दर्शाया जाता है। सामा चकेबा में भाई-बहिन का निश्छल प्रेम, डोमकच नृत्य में विवाह का सामाजिक संदर्भ, सल्हेस लोरिक और बसावन नृत्य में शौर्य-पराक्रम, श्रृंगार की अन्तर्धारा, नटुआ-दयाल में व्यापारिक अभियान, गोपीचन में वैराग्य, और सती बिहुला में पति की जीवन रक्षा की गाथा बतायी जाती है। इसके अतिरिक्त यहां मनचुबही नाच, विरहानाच, रमखेलिया, हरिलता, जया विषहरि एवं मैना गोविंद नाच की भी परंपरा है। इन सबमें क्षेत्रीय ,जातीय व पारंपरिक चरित्रों को उल्लासमय अभिव्यक्ति दी जाती है। इस क्षेत्र में राम लीला प्रसिद्ध लोक नाट्य के रूप  में मान्यता प्राप्त है।

            मैथिली लोकनाट्यों का मूलाधार लोकसंगीत है। ये लोकगान या लोक संगीत वस्तुतः प्रकृतिगान हैं, जो लयतालयुक्त और आनुष्ठानिक होते है।  स्वयंवर गान की तरह मिथिला में सीता सम्मरि, गौरी सम्मरि, रूक्मिनी, सम्मरि आदि गान की परम्परा हैं। लोकदेवी-देवताओं की आराधना के लिए सुमिरन और भगैत आदि गायन की परम्परा है। जन्म के बाद बच्चे के लिए गाये जाने वाले गीत को 'सोहर' कहते हैं। सुबह-सुबह  गांवों में “पराती” सुनाई पड़ जाती है। मैथिली लोक गीतों में वटगमनी, नचारी ,चैतावर, समदाऊन, फाग, बारहमासा, मलार, चांचर,तिरहूती, झूमर,सांझ प्रमुख है। मैथिली छठ गीतों को तो देश विदेश में पसंद किया जाने लगा है। इतना ही नहीं मैथिली गाथाओं का गायन पृथक वाद्यों  के माध्यम से किया जाता है। सलहेस और कारीख पंजियार के लिए ओरनी, गोपीचन के लिए सारंगी, घुघली, घटमा के लिए ढ़ोलकी, बसावन-बख्तौर के लिए मृदंग वाद्य का उपयोग किया जाता है।

 

 मैथिल संस्कृति मे एक विशिष्ट वेशभूषा  व पहनावा है। पुरुषों में धोती कुर्ता सामान्य रुप से धारण किए जाने वाला वस्त्र है। वैवाहिक समारोह में समधी अर्थात  वर-वधू के पिता) को पांच टूक कपड़ा (धोती, कुर्ता, बनियान, अंडरपैंट और गमछा) देने के परंपरा है। मिथिला की महिलाएं मैथिल साड़ी पहनती हैं। पहले इस साड़ी में महिलाएं ब्लाउज़ नहीं पहनतीं और साड़ी का पल्लू गर्दन के चारों ओर घुमाया जाता है। पाग मैथिलों के  सिर पर पहना  जानेवाला वस्त्र है जो टोपी के समान होता है। यह सम्मान और आदर का प्रतीक है और मैथिल संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पाग का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से है जब इसे पौधों की पत्तियों से बनाया जाता था। लाल पाग दूल्हा और जनेऊ की पवित्र रस्में निभाने वाले लोग पहनते हैं। यह कपास, साटन और रेशम से बना होता है। परंपरागत रूप से लोग खाकी रंग का पाग पहनते हैं।     

 

मैथिल व्यंजन पूरी तरह से स्थानीय रूप से विकसित होते हैं और उन पर बाहरी लोगों और संस्कृतियों का बहुत कम प्रभाव होता है। पारंपरिक मैथिली व्यंजन हैं दही-चूरा, अरिकांच की सब्जी, कढ़ी बरी, घूघनी, तारुआ, बड़ी, माछ (मछली), कचरी, प्याजी है। दही-चूड़ा मूल रूप से चपटे चावल के साथ दही होता है, जिसे चीनी या नमक के साथ  खाया जाता है। कुछ लोग इसके साथ हरी मिर्च और आम का अचार भी खाते हैं। दही चूड़ा मिथिला के लोगों का पसंदीदा भोजन है। मकर संक्रांति में दही-चूड़ा का एक अलग आकर्षण होता है। मैथिली थाली में चावल, गेहूं, मछली और मीठे व्यंजन शामिल होते हैं, जिनमें विभिन्न मसालों, जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक खाद्य पदार्थों का उपयोग ध्यान आकर्षित करने वाला होता है। यहां व्यंजन आयोजन के अनुसार तय किए जाते हैं। मैथिल व्यंजनों में चावल, गेहूं, मछली और मांस के व्यंजनों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है और इसमें विभिन्न मसालों, जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक खाद्य पदार्थों का उपयोग किया जाता है।

मिथिला के लोग मांसाहारी भोजन के बहुत शौकीन हैं। जिसमें मछली मिथिला के भोजन का केंद्र बिन्दु है। स्थानीय लोग इसे 'माछ' कहते हैं, जिसको पकाने का तरीका भी अलग है। मछली को चावल या चपाती के साथ करी के रूप में खाया जाता है और चुड़ा-भुजा के साथ तल कर भी खाया जाता है। स्थानीय त्योहारों और विवाह समारोहों में मछली को  शुभ  माना जाता है। एक प्रसिद्ध स्थानीय कहावत है "माछ, पान और मखान, ई तीन टा ऐछ मिथिला के जान" अर्थात मछली, पान और जल-लिली के बीज मिथिला के सबसे विशेष व्यंजन हैं। मछली के साथ  साथ लोग मटन (बकरी), कबूतर, बत्तख और बटेर जैसे पक्षी भी खाते हैं। मिथिला के लोगों की थाली में सब्ज़ियाँ सबसे ज़्यादा होती हैं। बैगन-अदौरी एक लोकप्रिय  व्यंजन  है जिसे बैगन और उड़द की दाल के पकौड़ों से बनाया जाता है। अरिकांचन तरकारी (अरबी के पत्ते) भी मिथिला की सब्ज़ियों का हिस्सा है। शाकाहारी अरिकंचन, कद्दू के पत्ते , बेसन आदि को मछली की करी के सदृश्य सरसों मिर्च की सब्जी बनाते हैं। कढ़ी-बारी बेसन, दही और मसालों से बनाई जाती है और यह मिथिला के खास खाद्य पदार्थों में से एक है। तरुआ (पकौड़े) छोटी कटी हुई सब्ज़ियाँ या सब्ज़ियों के पत्ते होते हैं,  जिन्हें चावल के घोल में लपेटकर तला जाता है। तरुआ परोसे बिना किसी  अतिथि का स्वागत अपूर्ण माना जाता है।  तिलकोर (स्थानीय बेल का पत्ता), कदीमा (कद्दू), ओल (सूरन), कुम्हार (ऐश गॉर्ड), खम्हारुआ (डायोस्कोरिया सैटिया) आदि  के बने खास पकौड़े हैं। तरुआ बनाने में आलू, फूलगोभी, बैगन, प्याज, केला, लौकी (सजमन) जैसी सब्जियां  भी प्रयोग में लाई जाती है। भोजन के अंत में मीठे व्यंजन खाए बिना भोजन का स्वाद अधूरा माना जाता है। शुरुआत घी और अंत दही से किया जाता है। मैथिल लोग मिष्ठान  प्रिय होते हैं। यहां की प्रसिद्ध मिठाईयों मे अनरसा ,दिवाली के दौरान खाया जाने वाला एक पेस्ट्री जैसा नाश्ता, जो गुड़, चावल, खसखस, घी से बनाया जाता है। ठेकुआ गेहूं, चीनी, सूखे मेवे और घी से बना बिस्किट सदृश होता है जो छठ पूजा के अवसर पर अवश्य बनाया जाता है। पिडिकिया मैदा, चीनी, सूजी से बनाया  जाता है। खाजा, बालूशाही, लड्डू, मालपुआ, पोचुआ, सकरपारा, पंटोआ, मखाना खीर, सकरौरी प्रमुख  मिष्ठान है। बगिया को मैथिलों का व्यंजन माना जाता है, जो बहुत कुछ हद तक मोमोज की तरह होता है। मखाना या मखान एक विशेष प्रकार का जलीय पौधा है,  जिसकी खेती बिहार और नेपाल के मिथिला क्षेत्र में की जाती है। इसका प्रयोग मिथिला के लगभग प्रत्येक सामाजिक - धार्मिक समारोहों में किया जाता है। हाल के दिनों में इसका प्रसिद्धि देश विदेशों में बढ़ी है। बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर ने मिथिला मखाना के लिए जीआई टैगिंग प्रदान की है। मखाना मिथिला की तीन प्रतिष्ठित सांस्कृतिक पहचान पान, मखान और माछ (मछली)  में से एक है। 



               मिथिला में विवाह की अपनी परंपराएं और रीति-रिवाज हैं। मैथिल ब्राह्मणों की शादी अपनी विशेषता और विशिष्टता के कारण सभी के बीच लोकप्रिय मानी जाती है । ऐसी मान्यता है कि मैथिल ब्राह्मणों की शादी भी उसी रीति-रिवाज और रीति-रिवाज से होती है, जैसा कि रामायण में भगवान राम और माता सीता के विवाह का उल्लेख है। सीता स्वयंवर की तरह यहां  मधुबनी जिले के सौराठ गांव में दूल्हों का मेला  लगता है, जिसमें सभी 'योग्य' दूल्हे आते थे, दुल्हन के परिवार के पुरुष सदस्य भी पहुंचते थे। पहले इस मेले में विवाह तय होते थे और शुभ मुहूर्त में लगभग तुरंत ही विवाह संपन्न हो जाते थे। यह मिथिला क्षेत्र की विशिष्टता थी , जो अब परंपरा में नहीं रह गई है । एक विशिष्टता के तौर पर मैथिल ब्राह्मणों में विवाह के समय दूल्हे को चार दिनों तक ससुराल में  रहना पड़ता है।  परंपरागत रूप से  दुल्हन चतुर्थी( वास्तविक  विवाह) के बाद भी अपने ससुराल नहीं जाती है। मिथिला में दूल्हा और दुल्हन को क्रमशः ' कनिया और वर ' कहा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का एक गोत्र होता है जो  किसी महान ऋषि/भिक्षु के नाम पर रखा गया है। किसी विशेष गोत्र से संबंधित लोग उस ऋषि के वंशज माने जाते हैं । वे एक-दूसरे से विवाह नहीं कर सकते। गोत्र तय होने के बाद, पिछली सात पीढ़ियों के वंश वृक्ष का मिलान किया जाता है जिससे यह देखा जा सके कि भावी वर और वधू किसी ऐसे संबंध में तो नहीं हैं, जहां विवाह निषिद्ध हो। इस प्रक्रिया को सिद्धांत कहा जाता है । इसे करने वाले पंजियार कहलाते  हैं। दुल्हन  की साड़ी, लहठी (चूड़ियाँ) और दूल्हा  का  धोती, कुर्ता, चादर (शॉल), जनेऊ (पवित्र धागा), खड़ाऊँ (लकड़ी से बनी चप्पल), पाग (सिर पर टोपी के रूप में मिथिला पहनावा का एक बहुत ही शुभ सामान), धुनेश, दराडोर (कमर पर पहनने के लिए)  आदि विशिष्ट स्थानीय परिधान हैं। 'घुनेस', मिथिलांचल में शादी के अवसर पर दूल्हे द्वारा औपचारिक रूप से पहना जाने वाला एक सिर का वस्त्र है। दुल्हन सुबह स्नान करके नए कपड़े पहनती है और पूरे दिन खुले बाल रखती है। (जो कपड़े दुल्हन पूरे दिन पहनती है, वे कपड़े धोबिन को दिए गए हैं, क्योंकि धोबिन को सुहाग देने वाली माना जाता है। कोहबर घर एक दीवार पर कोहबर पेंटिंग से सजाया गया है। यह विवाह के दौरान सभी रस्में करने के लिए एक विशेष स्थान/कमरा  है, जहां दूल्हा-दुल्हन को चतुर्थी तक चार दिन तक रहना होता है । दुल्हन को पूरे दिन एक सुपारी अपने पास रखनी पड़ती है। दोपहर में मातृका पूजा और शाम को धोबिन दुल्हन को सुहाग का आशीर्वाद देती है। दुल्हन पिसे हुए चावल (पिठार) और लाल रंग के पवित्र धागे की मदद से आम के पेड़ और महुवा के पेड़ की पूजा करती है। दुल्हन के परिवार के बड़े सदस्य धूप और अगरबत्ती ( चंगेड़ा) से सजे बांस की लकड़ियों से बने एक बड़े थाल के साथ दूल्हे के परिवार के पास आज्ञा डाला लाने जाते हैं । परिच्छन अर्थात दुल्हन पक्ष की महिलाओं द्वारा दूल्हे का स्वागत एवं परीक्षण किया जाता है। समस्त  वैवाहिक रस्में दुल्हन पक्ष की एक अनुभवी महिला अर्थात विधकरी द्वारा की जाती हैं, जो अगले चार दिनों तक दूल्हा और दुल्हन के बीच मध्यस्थ बनने की जिम्मेदारी भी निभाती है । वह पान के पत्ते की मदद से दूल्हे की नाक पकड़कर उसे कोहबर घर में प्रवेश कराते हैं । नैना जोगिन नामक रस्म में  दूल्हे को अपनी दुल्हन को ढूंढना होता है जिसे उसकी बहन ने बड़े शॉल के नीचे छिपा दिया है। यह रस्म बहुत मनोरंजक है, दुल्हन पक्ष की महिलाएँ स्थानीय विवाह गीत गाती हैं। एक अनुष्ठान ओठंगर कूटना है । लावादहन ,शिलारोहण, सिंदूरदान, घूंघट, चूमाऊं, दूर्बाक्षत, नगहर विवाह की रात को  की जाने वाली रस्में हैं। यह भारतीय संस्कृति में सबसे लंबे समय तक चलने वाली विवाह है। शिलारोहण सिंदूरदान में दुल्हन के सिर पर सिंदूर लगाया जाता है। मिथिला में शादी की रात दुल्हन के सिर पर लगाया जाने वाला सिंदूर लाल सिंदूर नहीं होता, यह उनका अपना पारंपरिक गुलाबी सिंदूर होता है। लाल सिंदूर शादी के चौथे दिन (चतुर्थी) लगाया जाता है। चुमावन और दूर्बाक्षत स्थानीय परंपराएं हैं, जिसमें घर या समुदाय की बड़ी विवाहित महिलाओं /पुरुषों द्वारा नए जोड़े को आशीर्वाद दिया जाता है। दूल्हा, दुल्हन और विधकारी को चार दिनों तक केवल मीठा भोजन खाकर जीवित रहना होता है। उन्हें नमक खाने की अनुमति नहीं होती है। दूल्हा एक रस्म के रूप में दुल्हन की चोटी खोलता है, एक अन्य रस्म में वह उसकी मुट्ठी भी खोलता है जिसे उसे तीन बार मुट्ठी बंद करनी होती है और हर बार दूल्हे को अपने बाएं हाथ से उसकी मुट्ठी खोलनी होती है। चतुर्थी के अगले दिन दुल्हन घर की पांच विवाहित महिलाओं के साथ एक थाली में सिंदूर, सतंजा (अनाज का मिश्रण), बालों का तेल, कपड़े लेकर पास के तालाब पर जाती है। महिलाएं आशीर्वाद के रूप में दुल्हन के सिर पर सिंदूर और तेल लगाती हैं। वह उन्हें सतंजा भेंट करती हैं। इस रस्म को दहनही के नाम से जाना जाता है । दुल्हन का दूल्हे के घर पहुंचना द्विरागमन कहलाता है । विवाह में गीतों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। विवाह की शुरुआत से लेकर विदाई तक के गीतों में हर रस्म का उचित वर्णन होता है। 

        मैथिली  पर्व त्योहारों में जुड़ शीतल  या मैथिली नव वर्ष  का उत्सव है। यह दिन आमतौर पर भारत और नेपाल के मिथिला क्षेत्र में मैथिलों द्वारा ग्रेगोरियन कैलेंडर पर 14 अप्रैल को मनाया जाता है। इस अवसर पर मिथिला में लोग एक दिन पहले से तैयार बड़ी-भात खाते हैं।नाग पंचमी नाग देवता का त्यौहार है, जिसमें लोग भक्ति के प्रतीक के रूप में सांपों को दूध और चावल चढ़ाते हैं। इस दिन भक्त अपने घरों के दरवाज़ों पर गोबर से नाग की तस्वीरें चिपकाते हैं।चौथ चन्द्र में परिवार के कल्याण के लिए चंद्र देव की पूजा की जाती है। इस दिन लोग पूरी और पेडूकिया जैसे व्यंजन तैयार करते हैं और शाम को पूजा के बाद उनका सेवन करते हैं ।कोजागरा  समृद्धि की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए अश्विन महीने की पूर्णिमा की रात को मनाया जाता है। “कोजागरा” का शाब्दिक अर्थ है जागरण की रात, जो विवाह के प्रथम वर्ष दुल्हे के घर पर विशेष तौर पर मनाया जाता है। भातृ-द्वितीया या भैया दूज भाई-बहन का त्योहार है । छठ पूजाउत्तर बिहार के लोगों द्वारा मनाया जाने वाला यह व्रत सूर्य देव की पूजा के लिए समर्पित है और इसलिए इसे 'सूर्य षष्ठी' के नाम से भी जाना जाता है। देवोत्थान एकादशी का  व्रत भगवान विष्णु की पूजा है।इस दिन मैथिल लोग चार महीने से सोये हुए भगवान को जगाने के लिए इस त्यौहार का पालन करते हैं। सामा चकेबा एक हिंदू त्यौहार है, जिसकी उत्पत्ति मिथिला क्षेत्र से हुई है। इस त्यौहार में लोक नाट्य और गीतों के माध्यम से भाई-बहनों के प्रेम को दर्शाया  जाता है। लड़कियाँ रात में सामा और चकेवा की छोटी मूर्तियों, मोमबत्तियों, काजल, मिट्टी से बने दैनिक उपयोग के उपकरणों आदि से भरी टोकरी लेकर छठ के घाटों के पास इकट्ठा होती हैं,पारंपरिक गीत गाती हैं, काजल बनाने, टोकरियाँ बदलने जैसी कुछ रस्में निभाती हैं। यह उत्सव कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। 

मिथिला के लोकजीवन को उत्कर्ष प्रदान करने के लिए अनेकानेक व्रत एवं पर्व-त्योहारों का विधान विहित हैं। मधुश्रावणी, वटसावित्री, अक्षयनवमी, नागपंचमी, रवि, षष्ठी, जितिया, भ्रातृद्वितिया आदि की संरक्षिका स्त्रियाँ ही है। सेवक, भगत, ओझा-गुणी, धामी-धमिआइन आदि के माध्यम से दैवीकृपा लोक को प्राप्त होती है। इन देवी-देवताओं को मधुर-मिष्ठान, छागर-पाठी, गांजा-भांग, दारू, मिट्टी के हाथी-घोड़े, बाघ, खराँऊ लाठी, सतंजा, विष्ठी आदि अर्पित किये जाते है। भक्तिपरक गीतों में इनका देवी स्वरूप, चमत्कार एवं पूजा-प्रक्रिया में लौकिक आचार और नाच-गान में लोकनुरंजन के भाव प्रमुख होते है। आदिम प्रवृति और परम्पराधारित, अभिजात्य संस्कार से भिन्न जनपदीय भाषा में मुखरित मैथिली लोकसाहित्य मानवीय उद्‌गार की मौखिक अभिव्यक्ति है।   


       अपनी  विशिष्ट सांस्कृतिक छवि के इस परंपरा का निर्वहन मिथिलांचल के विद्वानों और महान शिक्षाविदों द्वारा अपने कलात्मक सृजन एवं साहित्य के माध्यम से किया जाता रहा है। महान मैथिली कवि विद्यापति और उनकी रचनाएँ लेखकों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। पदावली नामक उनकी सैकड़ों कविताओं का संग्रह अभी भी कृष्ण और राधा के बीच प्रेम का वर्णन करने वाली सबसे रोमांटिक कविता का स्रोत है। हरिमोहन झा, चंदा झा, जयमंत मिश्र, गंगानाथ झा, अमरनाथ झा और मोहन झा जैसे कई शिक्षाविद् इसी क्षेत्र से थे,  जिन्होंने कवि कोकिल विद्यापति की विरासत को आगे बढ़ाया। विद्यापति, मैथिली को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयोग करने वाले पहले लेखक थे। वाचस्पति मिश्र, अयाची मिश्र, उदयनाचार्य, कालीदास, मंडन मिश्र, नागार्जुन और गोनूक झा की सांस्कृतिक परंपरा बरकरार है। आज मैथिली भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है। आज विभिन्न विश्वविद्यालयों सहित देश विदेशों में मैथिली भाषा एवं  साहित्य की शिक्षा दीक्षा दी जा रही है। 


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