स्त्री स्वतंत्रता

स्त्री स्वतंत्रता का विमर्श काफी पुराना है। स्त्रियां अपने अधिकार और समानता के लिए निरंतर संघर्ष करती रही है और बड़े शहरों में वो सफल भी हुई है। सामाजिक विकास के तीन स्तरो गांव,छोटे और मध्यवर्गीय शहर तथा मेट्रो शहर मे तीन अलग अलग समाज और स्त्रियो की स्थिति दिखलाई पडती है। हरेक स्तर के स्त्रियों की स्थिति, लड़ाई का स्तर, सोच में अंतर है। मेट्रो शहरों मे पिंक रिवोल्युशन है अर्थात् स्त्रियां स्वतंत्र है तो गांवो मे अभी भी खाप पंचायत है। स्त्री स्वतंत्रता की जब हम बात करते हैं तो मध्यमवर्गीय स्त्री की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। मेट्रो शहर की स्त्रियां पुरुषों के समकक्ष या कहीं कहीं उनसे आगे निकल चुकी है और गांवों में उन्होंने अपनी यथास्थितिव स्वीकार कर ली है। आज भी पुराने पितृसत्तात्मक कानूनों की चक्की में पिसते रहने के लिए उन्होंने स्वयं को ढाल लिया है। लेकिन मध्यमवर्गीय स्त्री पेंडुलम बनी बैठी है। तमाम सुविधाएं, कानूनी हक, शिक्षा, नौकरी के बावजूद वो बंधन से निकल नहीं पा रही हैं।स्त्री सुरक्षा के लिए बने तमाम कानूनों का पढ़ी लिखी और समर्थ स्त्रियां लाभ उठा रही है। पढे लिखे और खुले विचारो के बावजूद समाज की यह विडम्बना है कि जितनी स्त्रियो को हम उनपर हुए जुल्मो के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए देखते हैं ,उस से अधिक महिलाओ की चींखे वीराने में दम तोड़ देती हैं। पता नहीं  कितनी महिलाये अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस के पास जा पाती हैं और कितनी बिना अपने को बेइज्ज्त कराये वहाँ से सहायता पा लेती हैं ? जाति और धर्म के 'सम्मान' के नाम पर मारे जा रहे प्रेमियों के युग में स्त्रियां अपनी मर्ज़ी से अपना साथी चुनने का अधिकार भी चाहती है। वह चाहती है कि उसका दिल चाहे तो वह बुर्क़ा पहने और मन करे तो बिकनी भी। उसकी मर्ज़ी हो तब लाल लिपस्टिक लगाये और मर्ज़ी हो तो बिना मेकअप फिरे।  शादी करने न करने के साथ-साथ बच्चे पैदा करने और माँ न बनने में से अपने लिए ख़ुद चुनने का अधिकार चाहती है। लेकिन वास्तव में स्त्री मन कुछ नही होता वह समाज के लिये सिर्फ देह होता है, जिसका हरेक स्तर पर सिर्फ भोग किया जाता है। स्त्री के वैचारिक खुलेपन का सीधा सम्बंध उसके " इजली एवलेवल" होने से लिया जाता है। फिल्म "पिंक" एक माडर्न सोसायटी की कहानी है फिर भी उसमे स्त्रियो के प्रति पुरुष मानसिकता का दिवालियापन दिखता है। वास्तव में स्त्री आधी दुनिया का हिस्सा है, उसकी इच्छाओं, जरूरतों का सम्मान होना चाहिए। वर्तमान में भी स्त्रियां एक असमान और असंतुलित संघर्ष झेल रही हैं। हरेक स्कैंडल या सेक्स कांड में स्त्री को ही दोषी बनाया जाता है। सोशल मीडिया पर स्त्रियों को मटर- पनीर से ज्यादा लजीज चीज कहकर चटखारे लिये जाते हैं। मर्द सिर्फ एक शिकारी होता है, जो औरत का सिर्फ शिकार करता है। हमारे समाज की सोच इस गाने में दिखती है कि " मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, गटका ले सैयां अल्कोहल से"।  ब्रिटेन मे नूर नामक एक महिला को मात्र इसलिये जान से मारने की धमकी दी गयी कि उसने जींस पहना था। उसे कहा गया कि ‘अपनी जीन्स उतारो काफिर, वरना नरक की आग में जलोगी"। एक जैन मुनि भी कहते है कि जींस पहनने से गुप्तांग मे घर्षण होता है और मनोविकार आता है। ये असल में समाज ,धर्म और मर्द का स्त्री के प्रति सोच है।  कामकाजी स्त्रियां लोकल ट्रेन में लटकती, बित्ता भर सीट के लिए  कचकच करती, थकी हारी, घर पहुंच पब्लिक नल से पानी भर पतीलियों, कुकरोें, थालियों, गिलासों से लड़ते भिड़ते देर रात सोने का प्रयास करती हैं, तो उससे पहले पति की शारीरिक भूख भी मिटानी पड़ती है। पति की मार खाकर सोने वाली औरत बे-आवाज उठ कर अंगीठी जलाकर खटर-पटर में व्यस्त हो काम पर निकल लेती है। स्त्रियों की समाज और सत्ता में वास्तविक स्थिति यह है कि विश्वभर की संसद में महिलाओं की संख्या के हिसाब से भारत आज भी 103 वें स्थान पर है, जबकि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान की सांसदों में महिला सांसदों की संख्या कहीं अधिक है। आज भी हम रात 9 बजे के बाद लड़कियों को घर से  बाहर नही निकलने देते, क्योंकि असुरक्षा की भावना इतनी है कि निर्भया जैसी दुर्घटना होने की आशंका से हर बाप डरा हुआ है। ताज़ा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में हर रोज़ 106 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं , जिसमें कम से कम 40 प्रतिशत पीड़ित नाबालिग लड़कियां हैं। आंकड़ों की यह स्थिति तब है जब 99 प्रतिशत यौन हिंसा के मामले दर्ज होने के लिए थाने तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। आर्थिक स्थिति में देखें तो भारतीय रोज़गार के बाज़ार में औरतों की सिर्फ़ 25 प्रतिशत हिस्सेदारी भी इनकी स्थिति दर्शाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार  महिलाओं की रोज़गार में हिस्सेदारी सिर्फ़ 10 फ़ीसदी बढ़ाने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी में 70 प्रतिशत का उछाल आ सकता है। विश्व आर्थिक संघ यानी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं में वेतन संबंधी समानता आने में 257 वर्ष लग सकते हैं। 

        परंतु समय और मानसिकता बदल रही है " पिंक रेवोल्युशन" और "रेड मंथ एंड" को बड़ी बेबाकी से शेयर किया जा रहा है।  ये हमारा देह है और मै इसका जैसे उपयोग करुं ,मेरी मर्जी और "नो मिन्स नो" यह वाक्य हिट हो रहा है।  लिव इन रिलेशनशिप और बिन ब्याही मां आजकल फैशन मे है। यह स्त्री स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। यहाँतक कि स्त्रियों ने आपस मे भी शादी करना शुरु कर दिया है। स्त्री-मुक्ति आन्दोलन यदि इसी रूप में आगे बढ़ता तो किसी सार्थक मुकाम पर अवश्य पहुँचता , परंतु विदेशी नारी मुक्ति आन्दोलन की तरह शारीरिक सुख, यौन स्वतन्त्रता के चलते वह भी विकृत हो गया। फलस्वरुप अधिकारों, दायित्वों, कार्यों की माँग करने वाली महिलायें यौन स्वतन्त्रता की बात करने लगीं। उनका लक्ष्य नारी देह की स्वतन्त्रता हो गया, यौन स्वतन्त्रता हो गया।  इसे नारी सशक्तीकरण की बिडम्बना ही कही जायेगी कि नारी सशक्तीकरण की समर्थक स्त्री नारी सशक्तीकरण की सफलता इस बात से तय करती है कि कब पुरुष वेश्यालय बनेंगे? जिगोलो को हायर करना फैशन और "स्त्रीयापा" दिखाने का प्रतीक बन गया। उन्हें मर्दानगी को चेलेंज करने मे मजा आ रहा है। मां बनना केवल स्त्रियों का एकाधिकार है। प्रेगनेंसी को ‘वुमन पावर’ से जोड़ा जाता है, ये तो एक औरत की शक्ति है, जो बच्चे पैदा कर सकती है। पुरुषों के पास इतनी शक्ति भला कहां है। ये तो ईश्वर का वरदान है मातृत्व का, जो केवल औरतों को मिला है, पर इसकी भी मांग होने लगी है कि औरतों को अपनी प्रेगनेंसी ख़त्म या बच्चा पैदा करने के लिए किसी की इजाजत नहीं होनी चाहिए।  बच्चा पैदा करना उनका अपना फैसला है। अब साइंस बहुत आगे निकल चुकी है। कई ट्रांसजेंडर जो अपने आपको पुरुष मानते हैं, उनको भी पीरियड होते हैं। बल्कि एक ट्रांसजेंडर हाल-फ़िलहाल मां भी बना है। हो सकता है भविष्य मे पुरुष भी मां बनने लगे। अभी हाल मे " सरोगेट मदर " का प्रचलन तेजी से बढा है। भारत सरकार ने इस सम्बंध मे कानून भी बनाये है। महिलाये " लेबर पेन " से बचना चाहती है।  यहां पुरुषो से समानता आड़े आ रही है कि क्यो मै ही सिर्फ लेबर पेन सहूं, परंतु यह सिर्फ बडे शहरो मे है,जहाँ माडर्नाइज्ड सोसाइटी है । सुदुर गांवो मे अभी भी वही स्थिति है जो आज से सौ साल पहले थी। हालांकि टीवी, मोबाइल और इंटरनेट ने उन्हे भी " ग्लोबल विलेज" के रुप मे जोड़कर जागरुक कर दिया है। स्‍त्री की परवरिश इसके लिये जिम्‍मेदार हैं। '' जब तक उसकी परवरिश से भेदभाव की भावना खत्‍म नहीं की जाएगी तब तक वह अपने आप को हीन मान कर, अपनी क्षमता व स्थिति से अनजान ही बनी रहेगी व उसे स्‍वतंत्रता के लिए अपनी योग्‍यता सिद्ध करनी ही होगी। गांवो मे उसी परवरिश की आवश्यकता है, परंतु सामंतवादी सोच वाला यह समाज इस कदर खुलने को तैयार नही है। "आनर किलिंग' सबजगह है, कही खुलता है तो  कही कब्र मे दफन हो जाता है। कहीं लड़कियों को उनके घरवाले मौत के घाट उतार रहे हैं तो कहीं जहाँ वो नौकरी करती हैं वहां उनका शारीरिक और आत्मिक शोषण हो रहा है। इन शोषणों के विरोध में गांवो मे भी "गुलाबी सेना" बन रही है जो इनके अधिकारो के लिये हथियार उठा लेते है। फिर भी यदि कोई महिला अकेले इसके विरुद्ध खड़ी हो जाती है तो यह समाज उसे मृत्युदंड दे देता है। ऋतुमति होना, गर्भधारण करना, दूध पिलाना, बच्चे पालना, संस्कार देना, पिटना, बलात्कार, गालियां, यांत्रिक शारीरिक संबंध, नोच खसोट, हिकारत चुपचाप झेलते चले जाना स्त्री देह से जुड़े सत्य हैं। स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह प्रतिशोध से पीड़ित नहीं, उसका विरोध पुरुष से नहीं अपितु पितृसत्तात्मक व्यवस्था से है। वह दमनचक्र का जवाब दूसरे दमनचक्र से हरगिज नहीं देना चाहती।  वस्तुत: सत्ता कोई भी हो पुरुष-सत्तात्मक या मातृ सत्तात्मक दोनों गलत है। बात तो समानता की होनी चाहिए। लेकिन खाप पंचायतो ने तो तालिबानी परम्परा को जीवित रखा ही है। आज भी कन्या जन्मपाप के समान होता है। शिशु भ्रूण हत्या में निन्यानवे प्रतिशत कन्या भ्रूण होती है। प्रधानमंत्री जी तक को भी "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ" में  भ्रूण हत्या के खिलाफ बोलना पड़ रहा है।गांवो या मेट्रो कही भी, जो शोषित है ,पीडित है उनके लिये आज भी वो लड़कियां गाती रहती है " अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो"। गांवो को तो शहर बनने में अभी समय लगेगा और स्त्री जागृति यहां भी अवश्य आयेगी  जरा देर से ही सही । 

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