फिल्म समीक्षा --लाॅस्ट


बालीवुड में बहुत कम फिल्में बनी हैं जो क्राइम रिपोर्टर द्वारा किसी अपराध की छानबीन  को केंद्र बिंदु में रखकर बनाई गई है। निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की फिल्म "लाॅस्ट" एक महिला क्राइम रिपोर्टर द्वारा एक गुमशुदगी की कथा की तह में जाने की कहानी है। ये वही निर्देशक हैं जिन्होंने" पिंक" बनायी थी। आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रत्येक दिन लगभग 174 बच्चे गायब हो जाते हैं, यानी कि प्रत्येक आठ मिनट में एक बच्चा लापता हो जा रहा है। अधिकतर मामलों में उनके बारे में कुछ पता ही नहीं चलता। अकेले मुंबई में हर रोज 30-40  लोग लापता हो जाते हैं। कोलकाता में भी प्रत्येक महीने पांच- छह सौ लोग गायब हो ही जाते हैं। इस फिल्म की पृष्ठभूमि में कोलकाता शहर है, तो स्वाभाविक रूप से नक्सली तो होंगे ही। असल मे किसी के लापता हो जाने के पीछे की कहानी में पुलिस को सबसे कम दिलचस्पी होती है क्योंकि वो ये मानकर चलती है कि वे स्वयं कहीं भाग गये होंगे। फिल्म ‘लॉस्ट’ एक नुक्‍कड़ नाटक अभिनेता दलित ईशान भारती के अचानक गायब हो जाने की कहानी है जिसमें मीडिया,प्यार, बदला, राजनीति, नक्सलवाद, जातीय एंगल शामिल हैं। वह एक न्‍यूज चैनल की एंकर अंकिता चौधरी  से बहुत प्यार करता है,जबकि अंकिता पर मुख्‍यमंत्री के खास मंत्री वर्मन(राहुल खन्ना)  का दिल आ जाता है। वर्मन उस पर मेहरबान हो जाता है और न केवल उसे बेहतरीन नौकरी और आलीशान घर देता है बल्कि विधायक भी बनवा देता है। इधर मीडिया में ईशान के माओवादी संपर्क की खबर आती है। यूं कहें कि नक्सली एंगल खुद राजनेताओं द्वारा प्लांट किया जाता है। अखबार में कार्यरत एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ क्राइम रिपोर्टर विधि साहनी (यामी गौतम) इस मामले की सच्चाई में जाने की कोशिश करती है, तो उसे धमकी भी मिलती है। उसके माता-पिता भी उससे इस केस  से दूर रहने को कहते हैं, लेकिन वह सच्चाई खोजने में लगी रहती है। फिल्म इन्हीं सबकी खोज है कि  ईशान की असल सच्चाई क्या है, क्या वह स्वयं से गायब है या उसे किसी ने किडनैप कर लिया  है? क्या वह जिंदा भी है या सत्ता में बैठे लोगों ने उसे गायब करवाया है? क्या वाकई उसने नक्सलवादी ग्रुप में शरण ले ली है?
         फिल्म "लास्ट " मीडिया और राजनेताओं के गठजोड़ की ओर इशारा करती है कि कैसे एक न्यूज चैनल की एंकर के एक नेता की अनुकंपाओं के सहारे सफल होती है। फिल्म पुलिस की साजिशों के बारे में बताती है, जिसमें शिकायतकर्ता या उसके करीबी को ही अब अपराधी मान लिए जाता है। फिल्म के संवादों मे माओवादियों, व्‍यवस्‍था में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार, लालच, कार्यस्‍थल पर लिंगभेद, लड़की की शादी, सत्‍तासीन और प्रभावशाली लोगों द्वारा आम लोगों पर थोपी जाने वाली विचारधाराओं जैसे मुद्दों को पिरोया गया है। यामी गौतम ने हाल में ऊरी, दसवीं, काबिल, ए थर्सडे आदि फिल्मों में अपनी काबिलियत का प्रदर्शन किया है। पूरी फिल्म को उसने अपने कंधों पर उठाने की कोशिश की है। लेकिन तहकीकात के दौरान जो एक क्राइम रिपोर्टर की दैहिक भाषा और मनोभाव  होता है, उसे पाने में भी वह विफल रहीं। यह फिल्म राजनीति में टिकट बंटवारे से लेकर एक न्यूज पोर्टल की आर्थिक, सामाजिक और व्यावसायिक ‘मजबूरियों’ की भी  बात करती है। किसी रिपोर्टर का दिन रात लगकर किसी खबर पर काम करना और फिर उसे प्रकाशित करने की दिक्कतों का सामना करना, ये मीडिया व्यवसाय को भीतर तक समझने की अलग अंतर्धारा है। फिल्म में पंकज कपूर और राहुल खन्ना ने बहुत ही अच्छा अभिनय किया है। कहानी का थीम और उद्देश्य बहुत ही अच्छा है पर निर्देशक उसे संभाल कर नहीं रख पाते हैं। जैसे फिल्‍म में नायिका विधि की नायक जीत के साथ प्रेम कहानी भी है, जो अधूरी और जबरन ठूंसी हुई लगती है।  विधि की अपने माता-पिता के साथ क्यों मतभेद है, यह पता नहीं। नक्‍सल नेता साथ विधि की वीडियो काल पर बातचीत का दृश्‍य भी बहुत अच्छा नहीं बन पाया है । कुल मिलाकर फिल्म राहुल खन्ना और पंकज कपूर के लिए देखा जा सकता है। यामी गौतम यह लगातार दूसरी फिल्म है जिसमें वो में लीड रोल में है, परंतु दर्शकों को अपनी ओर खींच नहीं पायी है।
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