होली है भई होली है

  "कक्का इस बार होली मे गांव नही गये क्या? बस मे बिहारी काका को बैठे देखकर मै आश्चर्य से बोला।
" अरे! कहाँ गये इसबार! कल तो काउंटिंग ही खत्म हुई है। इसी मे लगे रहे।इसबार तो वैसे भी भगवा वालों की होली जमकर हो गई और बाकी सबकी मुहर्रम! इस साल यहीं देखा जाय।  और अब गांव हरेक होली मे जाना कहाँ हो पाता है।" गांव मे ही ही होली का मजा है, शहरी होली भी कोई होली है।कोई फाग गाता है? जानता भी नही! सब बनावटी हंसी लिए गले मिलते हैं ,न किसी को जानते ,पहचानते। होली के अगले दिन कहीं मिल जायें तो पहचानेंगे भी नही।  सब बनावटी है।"कहते हैं " होली के दिन दिल मिल जाते हैं"! पर यहाँ तो दिल मे ही मिलावट है ,क्या मिलेगा।
   बोले" बेटा !होली तो बचपन की ही होती है बाकी तो बलजोरी होती है। एक दिन पहिले से लकड़ी ,गोड़हा, फूस का छप्पर खंभा चुराकर कर सम्मत(होलिका) जलाने के लिए जमा करना और रात मे बारह बजे के बाद सम्मत फूंक कर जलाना, काफी मजेदार था। रात भर वे लोग जगे होते थे जिनके दरवाजे पर जलावन के लिए गोबर को पाथकर " गोड़हा" बनाया गया होता था या फूस की छपड़ी या लकड़ी का "ढेंग" होता था। जहाँ नजर बची कि " ऐले ..ओले.. पार। वो चिल्लाते और गरियाते रहते और हम फिरंटो की झुन्ड उसे सम्मत मे डालकर भाग जाती। वहाँ से फिर हटा भी नही सकते थे क्योंकि उसे श्मशान का प्रतीक माना जाता है।
" तुम क्या जानो! तुमलोग तो शहरी बाबू हो!यहाँ तो सबकुछ चंदा से खरीद कर जमा करते हो!  उस गाली सुनना आशीर्वाद के समान था।सुबह उठकर सबसे पहले सम्मत का धुंआ लगाते , फिर उसमे हरी हरी गेंहु, चना के बाल भूनते और उसे खाते थे। उसी सम्मत के राख और मिट्टी के धूल से " धूरखेल" खेलना शुरु हो जाता। घर लौटो तो माय दो तीन तरह के पूआ, खीर और सब्जी बनाये रखती जिसे खाकर " चिकवा" के यहाँ खस्सी के मांस लाने के लिए लाइन लगा देते थे।जानते ही हो ,बिहारी मैथिल खूबे मांस खाता है, कूड़ा लगा लगा के। उस दिन यदि किसी के घर मांस न बने तो तो बेकार! वहाँ से आकर  रंग बाल्टी मे घोर के पिचकारी के साथ निकल लेते..घरे घरे दुआरे दुआरे।" आज न छोड़ेंगे बस हमजोली ,खेलेंगे हम होली!"और " जोगी जी धीरे धीरे नदी के तीरे तीरे!" गानो पर नाचते गाते सब हमजोली हम उम्र टोली बनाकर भौजाई से होली खेलने जाते। ये अलग बात है कि टोली मे चाचा, भतीजा, भाईसब होते और जिस  किसी घर मे  जिसकी भौजाई लगने वाली होती ,वो होली खेलता बाकी सब बैठ कर खाते। छौंड़ा सब भांग या दारू भी पीने का जुगाड़ जरूर रखते, ये अलग बात है कि मै बिना कुछ पीये साथ मे हमेशा बना रहता था
। घरे घरे घुमने के बाद चौक पर हुड़दंग होता और होलैया सब टोली बनाकर दुआरे दुआरे निकलते। होलैया टोली को काफी सम्मान के साथ दरी चादर बिछा कर बिठाया जाता। वो होरी गाते और बाद मे सबको नाश्ता, अबीर, सुपारी के साथ दक्षिणा भी दिया जाता। अब सब खत्म है । अब न तो ओ उमंग है, न रंग अबीर खेलने की ललक, न वो सामाजिकता, न किसी के दरवाजे आने जाने का प्रचलन। अब सब मे अहम है" कोई किसी से कम नही।"
कक्का जैसे अचानक फ्लैश बैक मे चले गये।" वो भी क्या जमाना था।
" क्या जोगीरा गाते थे हमलोग! एकदम बिंदास""जोगीरा सर र..र..र.र"!तुमलोगो ने कनस्तर के टुकड़ों को काटकर गले मे लटका कर उसे बजाते अलमस्तो की टोली तो देखी नही है। लाल -हरे रंग से रंगे चेहरे पहचान नही पाते।लेकिन जबसे पेंट का प्रचलन बढा है होली खेलने का मजा ही किरकरा हो गया है।अब तो कभी गांव जाकर भी होरी खेला करो।
" अब जब सभी लोग यहीं रहते हैं तो किसके साथ होली खेलने गांव मे जायें।"फिर आप कहते हैं कि गंवई होली अब मजेदार भी नही रही।"
अरे बुड़बक! इ थोड़े ही कहे हैं कि सफ्फे बेकार ही हो गया! अभी भी इतना मजेदार होता है कि शहर से तो अच्छा ही होता हैं।
"चलिए कक्का! लखनऊ आ गया! इसबार यहीं मना लिया जाय! अगली बार देखा जाएगा।

Comments

Popular posts from this blog

कोटा- सुसाइड फैक्टरी

पुस्तक समीक्षा - आहिल

कम गेंहूं खरीद से उपजे सवाल