पानी की समस्या से जूझता बुंदेलखंड

बुंदेलखंड में एक  कहावत है कि  ‘एक टक सूप - सवा टक मटकी, आग लगे रुखमा ददरी, भौरा तेरा पानी ग़ज़ब करी जाए, गगरी न फूटै, चाहै खसम मर जाय”। अर्थात इस क्षेत्र  में  पानी इतना दुर्लभ या महत्वपूर्ण है कि बड़ी मुश्किल से मीलों पैदल चलकर  पानी  भरी गगरी सिर पर रखकर लाती है। ऐसे में महिलाएं आपस में कहती हैं कि कुछ भी हो जाय लेकिन पानी भरी गगरी ना फूटे, भले ही उसका पति मर जाए परंतु पानी बचा रहे। जाहिर है इस क्षेत्र  में महिलाएं पानी को अपने खसम यानि पति  से भी ज़्यादा मूल्यवान समझती हैं, जो उनके  परिवार का आधार है। यह बुंदेलखंड में जल संकट के संबंध में बड़ी गंभीरता से सोचने को विवश करता है। यहां गर्मियों में कुएं, तालाब, हैण्डपम्प इत्यादि सभी पेयजल स्रोतों का जलस्तर नीचे चला जाता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार  ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक व्यक्ति को एक दिन में 55 लीटर पानी उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन एक आंकड़े के अनुसार यहां प्रति व्यक्ति प्रति दिन केवल 29 लीटर पानी ही उपलब्ध हो पाता है, जो अनुशंसित न्यूनतम मात्रा का लगभग आधा है। पिछड़ा क्षेत्र होने के कारण यहां के ज्यादातर पुरुष दैनिक मजदूरी या खेतिहर मजदूरी के लिए बाहर चले जाते हैं या काम की तलाश में दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों की ओर चले जाते हैं। शेष परिवार  महिलाओं के भरोसे रह जाता है जिन्हें इस पानी की भीषण समस्या का सामना करना पड़ता है। खाना पकाना, पानी पीना, सफाई करना और कपड़े धोना और यहां तक ​​ भैंसों या जानवरों को नहलाने के लिए भी पानी उन्हें ही लाना पड़ता है। अनुमान है कि चित्रकूट जनपद के मानिकपुर क्षेत्र में ,जिसे पाठा क्षेत्र भी कहते हैं, लगभग सत्तर प्रतिशत महिलाएं पानी की किल्लत से प्रभावित हैं। पाठा क्षेत्र में लगभग साठ ग्राम पंचायतें शामिल हैं, जिन गांवों में कोई अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहता है। कोई भला कैसे चाहेगा कि उनकी बेटियां ऐसे दुष्कर जगहों में जाए। 

             वस्तुत : बुन्देलखण्ड की भूमि पहाड़ी, पठारी, ढालू, ऊँची-नीची, पथरीली, कंकरीली एवं शुष्क वनों से भरपूर है। इस भूमि पर वर्षा का पानी ठहरता ही नहीं है। सालों भर पानी भरे रहने वाले नदियों के अभाव में यहां का जनजीवन आठवीं सदी से पहले घुमंतू पशुपालकों का ही था।  केवल बरसात के महीनों  में ही यहां की भूमि संतृप्त हो पाती थी। चन्देल राजाओं ने राज्य की पहाड़ी, पठारी, जंगली, पथरीली, ढालू, रांकड़ भूमि के विकास की योजना सुनिश्चित कर बरसाती धरातलीय जल नीची ढालू भूमि पर, पहाड़ों, टौरियों की पटारों में, खन्दकों ,खंदियों, दर्रों में, पत्थर मिट्टी के लम्बे, चौड़े, ऊँचे सुदृढ़ बाँध बनवाकर तालाबों में वर्षा जल को संचित करना शुरू किया। चन्देलों के बाद बुन्देलों ,गौंड़ों ,मराठों और अंग्रेजों ने इस जल अभाव ग्रस्त बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कुल मिलाकर 4000 से अधिक तालाबों का निर्माण कराया था। धीरे-धीरे  लोग यहां स्थायी बसने लगे थे।चन्देल राजाओं ने तो गुफा मन्दिरों  में भी जल कुंड कटवा दिए  थे। ऐसे गुफा मन्दिरों में पहाड़ों का जल धीरे-धीरे निरन्तर झिरता हुआ गुफा कुंडों को भरता रहता रहा है, जिसका उपयोग लोग आदिकाल से करते रहे हैं। इस कारण से यहां मवेशियों, वन्य प्राणियों एवं मनुष्यों को गर्मी की ऋतु में भी जलाभाव नहीं होता था। परन्तु स्वतंत्रता पश्चात अनियंत्रित विकास,निरंतर जनसंख्या वृद्धि पश्चात पानी का खर्च तो बढ़ गया परंतु संरक्षण, संचयन और वर्षा घटती चली गई।  कहते हैं कि पेड़, बादल और पानी खींचकर लाते हैं। जंगल हैं तो पानी बरसेगा ही। स्वतन्त्रता के पहले बुन्देलखण्ड में एक तिहाई भूमि अर्थात 33% भूमि में आवश्यक रूप से संरक्षित वन, अर्द्ध संरक्षित वन और ग्रामों के पास सुरक्षित वन रखे जाते थे। पेड़ भूमिक्षरण रोकते और जड़ों से पानी भूमि में पहुँचाकर भूमि को शीतल बनाए रखकर पृथ्वी को गर्म होने से बचाते रहे हैं। बुंदेलखंड  में यह नहीं हो सका। जल और जंगल का चोली-दामन का साथ होता है। अनियंत्रित विकास से तालाबों में कूड़ा-कचरा डालना तथा तालाबों के फीडिंग एरिया में इन्क्राचमेंट बढ़ता गया, जो यहां की जीवन रेखा थी। तालाबों में निरंतर  कचरा और गाद भरते रहने से उसकी जल भराव क्षमता कम हो जाने से, पानी जल्दी सूख जाता है। भूवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो बुन्देलखण्ड में भूमि के अन्दर ग्रेनाइट पत्थर की चट्टानें चादर की तरह अथवा आड़ी-तिरछी खड़ी-बिछी पड़ी हुई हैं, जिनमें भूगर्भीय जलस्रोत होते ही नहीं हैं। जल भराव के दबाव में  पानी बाहर निकल जाता है और तालाब पानी से खाली हो जाते हैं। असल में पथरीली, पहाड़ी, ढालू भूमि, जल प्रबन्धन के लिये कुओं एवं तालाबों के निर्माण तक ही उपयुक्त है, न कि बोरवेल खनन के लिये। बोरवेल 100 से 500 फुट गहराई तक खोदे जा रहे हैं, जिससे धरती के ऊपरी तल का पानी गहरे बोरवेलों में जा पहुँचता है। पठारी नदियों में हर साल बारिश के मौसम में इलाके की छोटी बड़ी नदियां उफान पर आ जाती है। इसका जल संचयन बेहतर विकल्प हो सकता है। साथ ही जलवायु परिवर्तन के चलते बुंदेलखंड में वर्षा की मात्रा में कमी आ रही है। सन् 2013 से  2018 के बीच, इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा में 60 प्रतिशत की कमी आई है। अनियंत्रित एवं अवैध खनन के चलते वर्षाजल को भूमि के अंदर पहुंचाने वाले रास्ते बाधित हो जाते हैं। पथरीली भूमि के कारण बारिश का पानी बह जाता है और भूजल रिचार्ज नहीं हो पाता है। वर्ष 2008 की सामरा कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार ‘क्षेत्र में अर्ध-शुष्क जलवायु की स्थिति के कारण कम वर्षा सतही जल उपलब्धता को प्रभावित करती है और कठोर चट्टानी भू-भाग भूजल उपलब्धता को सीमित करता है। 

             बुंदेलखंड क्षेत्र को 18वीं -19वीं शताब्दी मे प्रत्येक 16 वर्ष में बार-बार सूखे का सामना करना पड़ा था, जो 1968 से 1992 की अवधि के दौरान लगभग तीन गुना बढ़ गया है। हालांकि चित्रकूट जनपद के पाठा इलाके में वर्ष 1973 में पाठा पेयजल परियोजना शुरू की गई थी जिसके तहत यहां पानी की टंकियां बनवाई गईं और लोगों को पाइपलाइन से घर-घर पानी पहुंचाने का वादा किया गया था लेकिन जल संकट बरकरार रहा।  योजना आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 2009-10 से भारत सरकार ने बुंदेलखंड पैकेज को लागू करना शुरू किया था। इस पैकेज का उद्देश्य सिंचाई, पेयजल, कृषि, पशुपालन, वन, आजीविका के साधन समेत विभिन्न क्षेत्रों में सुधार कर पूरे क्षेत्र का समग्र विकास करना था। जल-संबंधी योजनाओं के तहत बड़ी एवं छोटी सिंचाई परियोजनाओं का क्रियान्वयन, नए कुओं का निर्माण, पुराने कुओं, टैंक एवं तालाबों का गहरीकरण, कुओं से पानी निकालने के लिए एडीपीई पाइप का वितरण, ट्यूबवेल, चेकडैम का निर्माण तथा मृदा एवं जल संरक्षण संबंधी कार्य किए गए हैं। बुंदेलखंड पैकेज के तहत उत्तर प्रदेश को साल 2009 से 2019 के बीच तीन चरणों में 3107.87 करोड़ रुपये दिए गए। इसके  लगभग 66 प्रतिशत का उपयोग पानी के संकट के समाधान के लिए किया गया। पहले चरण में उत्तर प्रदेश में करीब 92 करोड़ रुपये खर्च कर 2725 हैंडपंप लगाए गए और 12 पाइप योजनाओं के माध्यम  से घरों में पानी पहुंचाने के प्रोजेक्ट को लागू किया गया था। भूजल का स्तर बेहतर करने के उद्देश्य से यहां स्पेशल बुंदेलखंड पैकेज और अन्य सरकारी योजनाओं के जरिए चेकडैम और खेतों में तालाब बनाए गए लेकिन  तालाब निर्माण से पूर्व भूजल स्तर, मृदा परीक्षण आदि नहीं किये जाने और वर्षा कम होने के कारण तालाब सूखे रह गये। चेकडैम जल्द टूट जाने से नदियों में गाद भर गया और पानी रुक नहीं पाता है। जून 2020 में 'हर घर जल' योजना प्रारंभ कर बुंदेलखंड के हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचाने का कार्य शुरू किया गया। यह योजना केंद्र सरकार के जल जीवन मिशन का हिस्सा है। नमामि गंगे और ग्रामीण जलापूर्ति विभाग की “हर घर नल और हर नल में जल” योजनासे  बुंदेलखंड क्षेत्र में एक नई कहानी लिखी जा रही है। बुंदेलखंड के अधिकतर जिलों में 90 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवारों तक स्वच्छ पेयजल की सप्लाई दी जानी है। भू-जल स्तर बढ़ाने के लिए वर्षा जल संचयन की वृहद कार्ययोजना को तैयार की गई है। प्रत्येक जिले में 75 अमृत सरोवर बनाये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने बुंदेलखंड क्षेत्र के जल संकट को हल करने के लिए इज़राइल सरकार के साथ समझौता  किया है। 

        इन सरकारी प्रयासों के अतिरिक्त व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास भी बुंदेलखंड को पानी की समस्या से बचाने के लिए निरंतर किए जा रहे हैं। बांदा के “ वाटर हीरो” रामबाबू तिवारी के प्रयासों से बुंदेलखंड के लगभग 75 तालाबों में पानी वापस आ गया है,जिनका जिक्र  प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में भी किया था। इन्होंने गांव-गांव में पानी चौपाल, पानी पंचायत लगाकर न सिर्फ लोगों को जागरूक किया बल्कि जल साक्षरता अभियान के माध्यम से पानी की बर्बादी रोकी और श्रम साधना के माध्यम से तालाबों को पानीदार बनाया। इसके लिए” खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में” के तहत खेतों पर मेड़बंदी बनाकर पानी रोका जा रहा है। ऐसे ही जल योद्धा बांदा के उमाशंकर पांडे, ग्राम प्रधान तुलसीराम यादव, झांसी की जल सहेली शारदा वंशकार, ललितपुर की जल सहेली गीता देवी हैं। इनका मूल मंत्र  है” हर खेत में मेड़ और हर मेड़ पर पेड़”! हमीरपुर के एक संन्यासी कृष्णानंद ने तो अकेले ही आठ बीघे खेत मे 18 फुट गहरा तालाब खोद डाला है। जल की समस्या के समाधान की दिशा में ये बिहार के माऊंटेनमैन दशरथ मांझी से कम नहीं है। बुंदेलखंड में परमार्थ संस्था द्वारा किए गए पानी पंचायत, 100 गांवों में पानी के मॉडल और जल सहेलियों के गठन को ए सी आर टी के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। परमार्थ समाज सेवी संस्थान पिछले 25 वर्षों से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में जल संरक्षण और जल संवर्धन का कार्य कर रहा है। संगठन ने बुंदेलखंड के 100 ग्रामों में पानी के मॉडल खड़े किए हैं।  गांव-गांव में पानी पंचायत का गठन किया है। लगभग 776 जल सहेलियों का एक मॉडल खड़ा किया।

                वस्तुत बुंदेलखंड में पानी के संकट से निवारण हेतु एक जनांदोलन की आवश्यकता है। बिना खेती के पैटर्न बदले और  भूजल और धरातलीय जल के दुरुपयोगको रोका नहीं जा सकता। खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार भारत में करीब 90 परसेंट पानी का इस्तेमाल कृषि में होता है। बुंदेलखंड में कृषि सिंचाई का लगभग 65 प्रतिशत भूजल से किया जा रहा है। अल्प पानी वाले इन  क्षेत्रों में दलहन- तिलहन, ज्वार बाजरा जैसे मोटे अनाजों की खेती को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है। हाल के वर्षों  में यहां ज्यादा पानी की खपत वाले फसल धान और गेंहू की बुवाई बढ़ गई है। तालाबों  में जल संचयन के साथ साथ भूजल रिचार्ज करना ही बेहतर उपाय है। खेती में जल संरक्षण के लिए ड्रिप इरिगेशन तथा स्प्रिंकलर सिंचाई बेहतर विकल्प है।





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