कहां जा रहे हैं हम

अभी कुछ दिनों पहले अखबार में यह खबर पढ़ी कि बेटों और बहुओं की प्रताड़ना से आहत एक बुजुर्ग दंपती ने जहर खाकर अपनी जान दे दी। यह अत्यंत ही हृदयविदारक घटना है। उनके द्वारा लिखा गया सुसाइड नोट अंतर्मन को  झकझोरने वाला है। बुजुर्ग दंपती ने लिखा कि उसके बेटों के पास तीस  करोड़ की संपत्ति है, लेकिन हम खिलाने के लिए उनके पास दो रोटी तक मयस्सर नहीं हैं। बुजुर्ग सेना से रिटायर थे और  अपने बेटे के साथ रहते थे। उनका पोता हरियाणा कैडर के आईएएस अफसर हैं। स्वाभाविक रूप से पढ़ा लिखा और आर्थिक रूप से संपन्न परिवार है परंतु निश्चित रूप से संस्कारों की कमी है। अपने बहु द्वारा घर से निकाले जाने के बाद दो साल तक वे एक वृद्धाश्रम में रहे। बाद में उन्हें लगा कि हो सकता है कि परिवार का दिल बदल गया है तो  जब  वे लौटे तो फिर से उन्हें बाहर निकालकर घर में ताला लगा दिया। इसी बीच पत्नी के लकवाग्रस्त होने के बाद वे अपने दूसरे बेटे विरेंद्र के पास रहने लगे। यहां भी रुखी सूखी  बासी रोटी मिलती।  अच्छे खाने के लिए तरसते दंपति के अन्य आवश्यकताओं के बारे में तो कोई पूछता भी नहीं था। आखिरकार जब दर्द हद से बाहर हो गई तब उन्होंने  एक दिन सल्फास निगल लिया। इतने जुल्म किसी संतान को अपने जन्मदाता मां-बाप के साथ नहीं करने चाहिए। त्रस्त होकर उन्होंने अपनी जमीन, दुकानें और दो फिक्स डिपॉजिट  आर्य समाज  को दे दी हैं। यह बात जितनी कष्टदायक है उतनी विचारणीय भी है कि क्या हो गया है, हमारे समाज को, हमारे परिवार को, जहां बड़े बूढ़े के लिए परिवार में जगह नहीं है। यह हम सोच नहीं पाते कि हम भी कल बूढ़े होंगे और हमारी भी वही स्थिति होगी, हमारे बच्चे वही करेंगे जो आज हम उनके हम अपने मां -बाप के साथ कर रहे हैं। आख़िरकार बच्चे तो वहीं अनुकरण करते हैं जो उनके मां बाप करते हैं या जो परिवार में देखते हैं। 

             यहां आत्महत्याओं पर आधारित पुस्तक "ढलती सांझ का सूरज"का जिक्र प्रासंगिक प्रतीत होता है, जिसे अभी हाल में मै पढ़ रहा था। लेखिका मधु कांकरिया ने इसमें भारत में हो रहे आत्महत्याओं के संबंध में लिखा है।  हालांकि यह भारत में किसानों की दुर्गति और उनके द्वारा किए जा रहे आत्महत्या से संबंधित है, लेकिन उसमें जो मूल पात्र है, वह भी  अपने मां बाप को छोड़कर विदेश चला गया था। यहां मां अकेली है और वह बीस साल के बाद स्विट्जरलैंड से वापस आता है । वह भी  तब आता है, जब लगातार दो महीने तक अपनी मां से बात नहीं कर पाता है। मां ने फोन उठाना बंद कर दिया था , तब उसे लगा कि कहीं कोई अनहोनी ना हो गई हो । उधर स्विट्जरलैंड में उसने अपने परिवार बसा लिया था, मां को खोजने के लिए वह महाराष्ट्र के विभिन्न गांवों में जाता है, जहां  किसानों की आत्महत्या की स्थिति देखता है, उनकी दुर्गति देखता है।  अंत में जब कई गांव को घूमने के बाद वह वापस आता है, तो पता चलता है कि उसकी मां दो महीने पहले ही उसका इंतजार करते -करते मर गई थी।   लेखिका ने इसमें अर्थाभाव में कर्ज़ के दुष्चक्र में फंसे किसानों की मजबूरी वश आत्महत्या को गंभीरता से उठाया है तो दूसरी ओर वह स्विट्जरलैंड सरीखे संपन्न देशों में आत्महत्या के बढ़ते ग्राफ की ओर इंगित किया है। वहां अकेलेपन का दौर है ,कोई परिवार नहीं है ,कोई पति-पत्नी नहीं है, कोई बच्चे नहीं जो साथ में रहे। वहां वैवाहिक संस्था चरमरा रही है। पति पत्नी पार्टनर के रूप में रहते हैं जो न जाने कब बदल जायें। वहां भारत की तरह विवाह एक धार्मिक या सांस्कृतिक अनुष्ठान नहीं है, सिर्फ आवश्यकतानुसार व उपयोगितानुसार  किया जाता है। अधिकतर इंसान का अंतिम समय ओल्ड एज होम में गुजरता है या फिर वह अपने परिवार में अकेले बीतता है।  भारत में भी यही स्थिति होने लगी है।  हाई सोसाइटी में जहां पर आराम से लोग छोड़ कर के मां-बाप को अपने घरों में अकेले रहने लगे हैं।  संयुक्त परिवार टूट रहा है, एकल परिवार बढ़ रहा है। एकल परिवार में भी एक नई लत लग गई है, लोगों को विदेश जाने की।  विदेश जाने से पहले वह कभी नहीं सोचते कि उनके पीछे उनके मां-बाप या जो उनके चाहने वाले हैं,  उनका क्या होगा ? कुछ साल पहले की एक घटना जिसका जिक्र इस किताब में भी है  कि मां-बाप यहां भारत में यह रहे थे और बेटा विदेश जाकर बस गया।  जब कई महीनों तक उनसे बेटे की  बात नहीं हो पाई तो वह मुंबई वापस आया। पता चला कि घर में मां अकेली थी जो मर गई थी।  उसकी लाश 6 महीने से  पड़ी हुई थी। लाश अब कंकाल में बदल चुकी थी।  ऐसी नौकरी और  ऐसे पैसे किस काम के, जिस में आप परिवार के लिए समय न दे पाए और मां बाप यूं ही लावारिस की तरह तड़प कर मर जाये। क्या बच्चों की संवेदनाएं इस कद्र मर गई है कि वे उनके बारे में तनिक भी नहीं सोचते, जिनको वे यहां अकेला अपने पीछे छोड़ गये हैं। मां बाप सिर्फ अपने बेटे द्वारा भेजे गए मनीआर्डर की आस में नहीं होते बल्कि उन्हें उनका सहारा चाहिए। यह एकल परिवारों का साइड इफेक्ट है।

             वास्तव में  संयुक्त परिवार का टूटना भारतीय संस्कृति पर आघात है। संयुक्त परिवार में कुछ बच्चे बूढ़े कमजोर असहाय सभी लोगों का समान रूप से लालन-पालन परिपालन हो जाता था। उसमें यदि बच्चे अपने मां बाप को छोड़कर विदेश यदि चले भी जाते तो बाकि का परिवार उसके देखभाल के लिए होता था, पर अब कौन है? संयुक्त परिवार में बड़े बूढ़े का आशीर्वाद लोग लेते थे। लेकिन आज सभी लोग आर्थिक स्वतंत्रता सभी चाहते हैं। लेकिन एकल परिवार में जो होता है ,वो हमारे बच्चे भी तो देख रहे हैं, वो जब देखते हैं कि हमारे मां बाप हमारे दादा- दादी को छोड़कर चले आये तो उनपर कोई नैतिक दबाव नहीं होता कि वे अपने मां बाप को अकेला न छोड़ें। मेरे कहानी संग्रह " बटेसर ओझा " में भी एक कहानी है" तुम लौट आना बेटे"! इस कहानी में भी  एक मां बाप अपने  बेटे का इंतजार कर रहा है,जिसे बड़े शौक और तमन्ना से विदेश में पढ़ाई करने भेजा था लेकिन वो वहीं जाकर बस गया है । वहीं शादी कर लिया और इधर मां बाप अपने पोता का मुंह देखने के लिए भी तरह रहे थे। यहां तक कि जब उसने उसकी पत्नी, विदेश निवास, लाइफ स्टाइल ,सबको स्वीकार भी कर लिया और उसके साथ वहां जाकर रहने को भी तैयार था, परंतु बहुत ने अंत समय में बात पलट दी। कमी बहु की नहीं, बेटे की थी, जिसने मां बाप के अरमानों पर पानी फेर दिया था। आज हजारों ऐसे परिवार मिलेंगे, जो इसी दौर से गुजर रहे हैं‌ जिन्होंने शौक में और सिर्फ प्रतिष्ठा में कमाने के लिए पैसे कमाने के लिए बच्चों को विदेश पढ़ने के लिए भेज दिया और बच्चे वही पढ़कर नौकरी करने लगे जैसे जैसे वह आज विदेशियों की चमक दमक देखा वह भारत लौटना नहीं चाहा ये अलग बात है कि विदेश में रहकर भी वह अपनी संस्कृति पर कोई याद करता है।  एक अमेरिका निवासी मित्र बता रहे थे कि मैं आज अपने बच्चों को उसकी गलती पर भी डांट- मार नहीं सकता। संभव है वो   पुलिस स्टेशन चला जाए कि पापा मुझे पर ज़ुल्म करते हैं और पुलिस मुझ पर केस कर देगी। बात यह नहीं है कि बेटों को मारने पीटने का अधिकार नहीं है बल्कि लिहाज और संस्कार नहीं है। यह सब उन्हें वहां बसने के बाद महसूस होता है और तब वे कहते हैं कि भारत देश सबसे अच्छा है। लेकिन उपर वर्णित बुजुर्ग दंपति की कहानी इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि बहुत जल्द ही भारत में भी बुजुर्ग अपने बच्चों से आशा रखना छोड़ देंगे और रिटायरमेंट के साथ ही  अपने लिए वृद्धाश्रम में स्थान रिजर्व कराना शुरू कर देंगे,जैसा कि पुर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण ने किया था।

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