सिनेमा के स्वर्णिम काल की दास्तान - जुबली सीरीज


"फिल्म बनाने के लिए किसी न किसी के साथ तो सोना ही होता है, किसी के साथ जिस्म से तो किसी के साथ ईमान से।" 


बेव सीरीज" जुबली " में जब अदाकारा नीलोफर अपने को एक्टर से यह बात कहती हैं तो वो फिल्म इंडस्ट्री का एक कड़वा सच बयां कर जाती है।  हाल ही में चालीस के दशक की फिल्म इंडस्ट्री पर बनी फिल्म "कला" ने ढेर सारी प्रशंसा बटोरी है। अब उसी पीरियड के  फिल्म इंडस्ट्री की जादुई दुनिया को पेश करती  सीरीज पेश की है विक्रमादित्य मोटवानी ने  प्राइम वीडियो पर। उड़ान , लूटेरा , ट्रैप्ड और भावेश जोशी सुपरहीरो  जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले विक्रमादित्य मोटवानी ने ओटीटी की सबसे पहली मशहूर वेब सीरीज सेक्रेड गेम्स  का निर्देशन किया था। उनकी नयी सीरीज 'जुबली' की कहानी हिंदी सिनेमा के गोल्डन एरा के साथ-साथ देश के बंटवारे का  मंजर भी बयां करती है। कहानी है इंडस्ट्री में टॉकीज के उस दौर की, जब एक्टर्स वेतन पर रखे जाते थे और टाकिजों अर्थात प्रोड्यूसर्स से बंधे रहते थे। श्रीकांत रॉय और सुमित्रा कुमारी अपनी " रॉय टॉकीज "को बचाने के लिए एक नए चेहरे मदन कुमार की तलाश में हैं, जो लखनवी जमशेद खान  पर आकर खत्म होती है। जमशेद खान एक थिएटर आर्टिस्ट, स्ट्रगलिंग और टैलेंटेड एक्टर है, जिसे मदन कुमार के तौर पर लॉन्च करने का ऐलान किया जाता है, पर जमशेद बंबईया इंडस्ट्री के प्रतिबंधों में बंधकर काम करने बजाय करांची जाकर थियेटर करना चाहता है।  यह वह दौर था, जब अमूमन फिल्म एक्टर्स का नाम लोगों की रुचि अनुसार बदल दिया जाता था। अक्सर हीरो कुमार ही होते थे। जमशेद को श्रीकांत की पत्नी और रॉय टॉकीज की आधी मालकिन सुमित्रा कुमार  से प्यार हो जाता है।  सुमित्रा अपनी शादीशुदा लाइफ में खुश नहीं है। श्रीकांत रॉय अपने वफादार स्टूडियो कर्मी बिनोद दास को लखनऊ जाकर जमशेद और सुमित्रा को साथ लाने के लिए कहता है। श्रीकांत को अपनी पत्नी से ज्यादा अपने स्टूडियो से मोहब्बत है। इसी बीच  देश का बंटवारा हो जाता और लखनऊ में दंगे शुरू जाते हैं, जिसमें  जमशेद मारा जाता है। विनोद उसे बचाने की कोशिश नहीं करता। इधर बिनोद दास मौका पाकर श्रीकांत राय  को अपनी एक्टिंग का हुनर दिखाकर मदन कुमार के रूप में फिल्म एक्टर बन जाता है। एक तरफ नेहरू की मशहूर स्पीच ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ बज रही है, दूसरी तरफ बिनोद दास हिंदी सिनेमा का सुपरस्टार मदन कुमार बन रहा है। उधर रॉय टाकीज की  साझीदार सुमित्रा कुमारी को ये बर्दाश्त नहीं कि जमशेद खान की जगह उनके स्टूडियो का कोई अदना सा मुलाजिम मदन कुमार बन जाए। बिनोद को नीचा दिखाने, बर्बाद करने, जलील करने की वह  सारी कोशिशें करती है।


जय खन्ना जमशेद का  दोस्त और फिल्म राइटर है तथा कराची के मशहूर थियेटर खन्ना थियेटर के मालिक नारायण खन्ना का बेटा है। बंटवारे से तबाह जय और उसका परिवार मुंबई के सायन इलाके में बने रिफ्यूजी कैम्प में शरण लेता है। इस दौरान जय अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम करता है। जय, मदन कुमार को अपनी फिल्म में काम करने के लिए मना लेता है पर मदन अपने मालिक श्रीकांत के कहने पर शूटिंग शुरू होने से पहले फिल्म के लिए मना कर देता है। जय फाइनेंसर वालिया के सहयोग से खुद को हीरो लेकर फिल्म बनाता है जो सुपर हिट होती है और उधर मदन की फिल्म फ्लाप। श्रीकांत राय अब जय खन्ना को लेकर फिल्म बनाना चाहता है। यहीं से सीरीज का टर्निंग पॉइंट शुरू होता है। 

             

एक्टर के रूप में अपारशक्ति खुराना ने पहली बार परदे पर अपने अभिनय का असली रंग दिखाया है।  सीरीज के उस संवाद पर भी खरे उतरते हैं कि ‘यहां सबको बड़ा- बड़ा बोलने में बहुत मजा आता है लेकिन जो चुप रहता है, वह लंबा चलता है। स्टाफ क्वार्टर से निकलकर स्टार क्वार्टर का सफर तय करने वाला अपारशक्ति का किरदार इस सीरीज का आधार है, उसी पर हिंदी सिनेमा में चलती सियासत बुनी जाती है। सिद्धांत गुप्ता ने अपारशक्ति को बराबर की टक्कर दी है और इन दोनों की अभिनय कला को असल चुनौती मिलती है सुमित्रा कुमारी का किरदार निभा रहीं अदिति राव हैदरी से। एक मूक नायिका के उस किरदार में हैं, जो बोलती कम है, लेकिन उसकी आंखें सबकुछ बयां कर देती हैं।  एक स्टार एक्ट्रेस, एक प्रेमिका, एक पत्नी, एक विद्रोही महिला और किसी पुरुष को बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक जाने वाली एक महिला के किरदार में उन्होंने जान डाल दी है।  नीलोफर कुरैशी के किरदार में वामिका गब्बी ने भी शानदार अभिनय किया है। उनकी मासूमियत मनमोह लेती है।  एक वेश्या से एक फिल्म की स्टार एक्ट्रेस बनने तक का सफर उन्होंने खूब जिया है। जमशेद खान के रुप में नंदीश संधू की बेहतरीन अदाकारी है जो बहुत कम समय के लिए पर्दे पर आते हैं, लेकिन जब आते हैं जा जाते हैं।



         सीरीज में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे की दर्दनाक कहानी देखने को मिलती है। इसके अलावा ये भी समझ आता है कि उस समय हिंदी सिनेमा किन मुसीबतों से गुजर रहा था।  सीरीज में प्यार, धोखा और बंटवारे का दर्द है। इसमें  सिनेमा को काफी गहराई से दिखाया है। काफी हदतक इसे मशहूर बांबे टाकीज के हिमांशु राय और देविका रानी के किरदार से प्रेरित बताया जा सकता है परंतु कहानी उनकी नहीं है। हिंदी सिनेमा के शुरुआती दिनों का सबसे मशहूर स्टूडियो रहा है, बॉम्बे टाकीज। सीरीज का गीत संगीत फिल्म "कला" की तरह चालीस के दशक के गानों की याद दिलाता है। गीतकार मुनीर कौसर और संगीतकार अमित त्रिवेदी इसमें सफल रहे हैं। यह वह दौर था जब प्लेबैक सिंगिंग इंट्रोड्यूस हो रही थी। यह वह शीतकाल का दौर भी था ,जब अमेरिका और सोवियत रूस हिंदुस्तानी फिल्म इंडस्ट्री को अपने प्रचार प्रसार का माध्यम बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंके पड़ा था। यही वह दौर था जब  रेडियो पर फिल्मी गानों का प्रसारण रोक दिया गया था, लेकिन विदेशी धरती से इसका प्रसारण चोरी चुपके किया ही जा रहा था। इस दौर की फिल्मों पर सोवियत रूस के साम्यवादी चरित्र और अमेरिकी पूंजीवाद का टकराव बेहतर तरीके से देखा जा सकता है। डायरेक्टर और  लेखक ने इन सबको बखुबी इस सीरीज में दिखाया है। निश्चित रुप से हिंदुस्तानी सिनेमा का इतिहास देखना हो तो आपको यह सीरीज देखना चाहिए।

              

Comments

Popular posts from this blog

कोटा- सुसाइड फैक्टरी

पुस्तक समीक्षा - आहिल

कम गेंहूं खरीद से उपजे सवाल