डार्विन जस्टिस

" डार्विन जस्टिस" नाम  तो बड़ा आकर्षक और अंग्रेजीशुदा रखा गया है, कुछ हदतक लेखक नाम रखने को जस्टिफाई करते भी नजर आते हैं। वस्तुतः यह सत्य पृष्ठभूमि पर रची बुनी गयी कहानी है ,जो तथाकथित " जंगलराज" कालखंड वाले मध्य बिहार  की कहानी है। कहानी है, बिहार मे नक्सलवाद और प्रतिक्रिया स्वरूप जन्मे रणवीर सेना की और उस पृष्ठभूमि मे जन्म ले रहे दो स्कूली लड़का- लड़की की प्रेम  की। कहानी मंडल कमीशन और बिहार पड़े इम्पैक्ट, लालू राज, अगड़ो के विरुद्ध पिछड़ो की आवाज बुलंद करने और हथियार उठाने की है। एक गांव के स्कूल मे पनप रहे प्रेम कथा को केंद्र बिंदु मे रखकर कहानीकार ने एक डिफरेंट कहानी कहने की कोशिश की है। कहानी और सधी हुई और कसी हुई हो सकती थी पर लेखक शायद बार बार भटक जा रहा था। कथा शैली डायरी पढने जैसी है , बार बार डेट, इसवी सन् को लिखने के पीछे लेखक का उद्देश्य इसे सत्य कहानी प्रमाणित करनै और वास्तविक घटनाओं से जोड़ने की कोशिश भर है। पर किस्सा और दृष्टांतों की इतना रिपीटेशन है कि बोरियत होने लगती है। बार बार वही लाइन पढने पर खीझ हो रही थी -जैसे कंडोम फटने की गाथा। लेखक ने किस्सागोई की जो शैली अपनाई है जिसमे वह स्वयं पात्र न होकर भी कहता तो चल सकता था, बार बार किसी विषय पर वही सफाई देना, लेखक की कमी है। कहानी का  महत्वपूर्ण पात्र बनने के बावजूद वह ऐन मौकों पर गायब हो जाता था मसलन जब नायक अनय , चमनसिंह को छुड़ाने कहारटोली मे जाता है। पुस्तक तात्कालीन नरसंहार, हिंसा के वीभत्स रुप को हूबहू वर्णित करता है। नक्सलवाद भले ही सामाजिक और आर्थिक असमानता  के विरुद्ध दबे कुचलों की आवाज को लेकर जन्म लिया था परंतु इसका उपयोग व्यक्तिगत स्वार्थ मे अपराधियों और पिछड़े वर्ग के दबंगों ने किया।
कुछ कमियाँ हैं जिसे लेखक ने नजरअंदाज कर दिया,मसलन मोनालिसा को कैसे पता कि मै यानि लेखक चश्मिस किसे कहता है? चश्मिस तो मै लेखक और अनय ने स्कूल मे नाम रखा था , उसके घर का या वास्तविक नाम कुछ और होगा! इसका जिक्र भी नही हुआ , उसके चाचा भी बाद मे चश्मिस को ही खोजने आते हैं! कहानी बिखरी बिखरी सी है, शायद सही एडीटिंग नही हो पायी। मेरी समझ मे ये 432 पेज की पुस्तक 200- 250 पेज मे ज्यादा बेहतर और कसी हुई नजर आती। लेखक प्रवीण कुमार की संभवतः यह पहली किताब है, इसलिए इतने अच्छे विषय पर लिखने के बावजूद इसे संभाल न सके। हिंसा का वीभत्स वर्णन तात्कालीन  परिस्थितियों का सजीव वर्णन है  और दिल दहला देता है।वास्तव इस कालखंड और विषय पर मेरे द्वारा पढी जानेवाली यह पहली पुस्तक है इसकारण इसमे मेरी उत्सुकता बनी रही। यह कालखंड हमलोगों ने जिया है, हालांकि मै भुक्तभोगी नही हूँ पर मेरे कई साथियों ने नक्सलियों द्वारा दी जानेवाली पीड़ा को जिया है और उन्होंने अपना सबकुछ खोकर शहरों मे आशियाना बना लिया। मंडल कमीशन  का तो भुक्तभोगी रहा हूँ।" भूराबाल काटो" उद्घघोष के प्रणेता का शासनकाल हमने बिहार से बाहर रहकर देखा सुना है। लेखक ने विषय और प्रेम कहानी को बड़े अच्छे तरीके से वर्णित किया है बस बातो के रिपीटेशन और  लंबा खींचने  की कथ्य शैली से बोझिल बना दिया है। आशा है लेखक अगले संस्करण मे इन कमियों को दूर कर लेगा।

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