औघड़
ग्रामीण परिवेश पर लिखी गयी कहानियां हमेशा से मुझे अपने आप से बांधे रखती है। नीलोत्पल मृणाल का "औघड़" काफी दिनों के बाद पढ़ पाया और सही मायने मे शुरुआती पन्नों मे मुझे ये थोड़ा सतही तौर पर लगा पर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती गयी, किरदारों के चाल और चरित्र खुलते गये और मैने स्वयं को इसमे डूबा हुआ पाया। यह हर गांव की कहानी है , हरेक गांव पुरुषोतम सिंह, फूंकन सिंह, कामता प्रसाद, बैजनाथ, जगदीश यादव, लखन, मुरारी, लड्डन इत्यादि मिल जायेंगे पर बिरंची नही मिलेगा। बिरंची का कैरेक्टर एक अलग तरीके से बुना गया है जिसमे सत्तशाही के विरुद्ध आग भरी है। ऐसे कैरेक्टर खुशनसीब गांवों मे पाये जाते , लेकिन इनका हश्र भी भयानक होता है। सत्ता से टकराने वाले को क्रांति के साथी ही खा जाते हैं। बकौल लेखक औघड़ मतलब अघोर अर्थात जो अंधकार के खिलाफ हो। वैसे ग्रामीण अंचलों मे इसका मतलब तांत्रिकों या प्रचलित समाज व्यवस्था , जीवन शैली को न मानने वाले से निकाला जाता है।बिरंची जैसे औघड़ हरेक गांव मे पैदा नही होते। हां! अधकचरा मार्क्स शेखर ,जिसने सिर्फ पंचमकारों मे मार्क्स को देखा है, जमीन पर उतरते ही बौखला जाता है, जैसे सैद्धांतिक जरूर पाये जाते हैं जो मौके पर रणछोड़दास बन जाता है।कामता प्रसाद ने सही कहा कि हर क्रांतिकारी मार्क्सवादी बेटे के पीछे एक पूंजीवादी बाप होता है जिसके भेजे गये पैसे पर फुटानी और क्रांति चलता है!" बिरंची- साधू संवाद किताब को एक अलग ऊंचाई पर ले जाता है जहाँ उसका औघड़ स्वरूप निखरकर सामने आता है। किताब के पीछे का दर्शन यहां निकलकर आता है तथा बिरंची का एक अलग चेहरा भी देखने को मिलता है। सामंतशाही और सत्ता से लड़ने का जज्बा लिए बिरंची जब अपने पेशाब से महल की दीवारों को कमजोर करने की ख्वाहिश रखता है तो उसकी बड़े लोगों के प्रति घृणा सामने आती है।व्यंग्य शैली मे सटीक बातें कहने की आदत नीलोत्पल मृणाल मे है और इस किताब मे उन्होंने इस शैली का भरपूर प्रयोग किया है। सामंती व्यवस्था के साथ साथ उन्होंने स्यूडो कम्युनिज्म पर भी जमकर सवाल उठाये हैं। बिरंची के सवालों पर शेखर निरुत्तर होकर बौखला जाता है।क्रांतियों का हश्र अमूमन बिरंची की भांति होता है पर समूल नष्ट नही होता, एक आशा छोड़ कर जाता है, अपने बीज छोड़ जाता है।"दीवार अभी भी खतरे मे है।'और सत्तानशीनो को यही भय सताते रहना चाहिए जिससे वे औकात समझते रहें।सरकारी प्रतिष्ठानों और अफसरशाही मसलन बीडीओ और थानेदार का रवैया हूबहू वही है जो ज्यादातर होता है। महिलाओं को अपना काम कराने के लिए अभी भी इज्ज़त लुटानी पड़ती है और पत्रकार-पुलिस-माफिया का काकस पूरी तरह उभरकर सामने आता है।ग्रामीण समाज पर कोई कहानी ग्रामीण पंचायती राजनीति का जिक्र किए बिना नही हो सकती, जिसको उभारने मे लेखक सफल रहा है। कहानी मे बातें जो खटकती है वह बिरंची द्वारा पबित्तर का सच जानने के बावजूद उसके बुलाये जानेपर रात मे नदी किनारे जाना। जैसाकि प्रकाशक ने कहा है कि किताब को काटछांट के इतना बड़ा बनाया गया है। यदि शुरुआती प्रसंगो को किताब से हटा भी दिया जाता तो मूल कहानी पर कोई खास असर नही पड़ता।निश्चित रुप से उपन्यास को पढ़ते पढ़ते अनायास श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी और हरेप्रकाश उपाध्याय की बखेड़ापुर स्मरण होने लगता है जिसमे ग्रामीण समाज और सरकारी तंत्र को नंगा किया गया है। लेखक की पहली पुस्तक डार्कहार्स से औघड़ की तुलना बेमानी है क्योंकि वह अलग विषय, क्षेत्र और ट्रीटमेंट की कहानी है। कुल मिलाकर किताब पठनीय है।
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