कुकुरमुत्तों की तरह उगे इंजीनियरिंग कालेज

पापा ने तो बड़े अरमानों से इंजीनियर बनाने का ख्वाब देखा था परंतु इन्हें तो इतना भी वेतन नही मिलता जिससे बैंक को एजुकेशन लोन की किस्त जमा कर सकें।  अब सरकारी कालेज न मिल सका तो क्या! डोनेशन पर इंजीनियर बनायेंगे। असल मे दस बारह साल पहले तक दो ही प्रकार के जीव - मां बाप और बड़े बुजुर्गों की नजर मे होता था -एक डाक्टर और दूसरा इंजीनियर। बाकी बच्चे सब घास पात!बेटा जन्म लिया तो " मेरा बेटा इंजीनियर बनेगा(थ्री इडियट्स) और बेटी हुई तो पहले सिर पर मानों लाखों टन पानी पर गया हो, लेकिन थोडा खुश हुए तो " मेरी बेटी डाक्टर बनेगी"!  अब प्राइवेट कालेज मे डोनेशन बड़ा था तो  हैसियत नही है  फिर  लोन लेकर पढाया कि पास करते ही इंजीनियर साहब का "कैम्पस  सेलेक्शन" होगा और बेटा लाखों कमायेगा, पर कालेज तो सिर्फ डिग्री बांटते फिर रहा है, घोंटकर क्वालिटी थोड़े न पिला देगा!आज  सिर्फ लखनऊ के इर्दगिर्द मे सौ के आसपास इंजीनियरिंग कालेज होगा! उनको एडमिशन के लाले पर गये हैं, कबतक इंजीनियरिंग कर के लड़का सफाईकर्मी और चपरासी का फार्म भरता रहेगा ! अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि ये कालेज प्रति एडमिशन दस हजार का कमीशन बिचौलियों को देते हैं, जो गांवो से बच्चों को बहला फुसलाकर  हवाई किला बनाकर,विदेशी इंजीनियर बनाने के झांसे देता है और शहर लाता है। उनका भी तिलिस्म अब टूट रहा है। इनका एक और धंधा है ,जैसे सरकारी योजना के तहत अनुसूचित जाति के बच्चे/ बच्चियों को इंजीनियर की पढाई करने के लिए लगभग 90 हजार की सब्सिडी मिलती है, इसे भी इंजीनियरिंग कालेजों ने लूट का जरिया बनाया। उन्होंने इन्ही बिचौलियों के माध्यम से हजारों फर्जी एडमिशन कराये । सबसे बड़ी बात कि फर्जी एक्जाम के द्वारा सिर्फ कागजी घोड़े दौड़ाये। कागजों मे सिर्फ इंजीनियर बनते रहे और सबसिडी इन्हें मिलती रही। हालांकि जबसे सबसिडी सीधे स्टूडेंट्स के खाते मे जाने लगा तबसे इसपर रोक लगी है। नतीजा यह है कि अब कालेज कागजों मे भी खाली हैं।इतना ही नही कैम्पस सेलेक्शन मे भी घपला है ,जैसे कई  कालेजों ने कंपनियों से टाई अप कर रखा है कि प्रति साल आप इतने स्टूडेंट्स का सेलेक्शन आप करेंगे और बदले मे आपको एक लंबा पैकेज मिलेगा। ये कंपनियां एक साल का इन इंजीनियरों से अनुबंध करती है, जिसमे से अधिकांश को सालभर बाद नौकरी से निकाल देती हैं। इधर कालेज इस" हंड्रेड परसेंट कैम्पस सेलेक्शन" को अपने विज्ञापन मे यूज करती है कि हमारे इतने बच्चे कैम्पस सेलेक्ट हो गये हैं। बच्चे झांसे मे आकर एडमिशन के लिए दौड़ पड़ते हैं। अब इंजीनियर भला कैसे बनेंगे? शिक्षक और शिक्षा पद्धति दोनों गुड़ गोबड़ है। बीस पच्चीस हजार मे भला कितनी क्वालिटी और योग्यता के शिक्षक मिलेंगे? सिलेबस मे तो बस कागजी( थ्योरिटिकल) पढाई है, प्रैक्टिकल का नामोनिशान नही है, इसमे खर्च ही नही करते। एकमात्र उद्देश्य बिजनेस रह गया है। हाल मे हमारे एक अधिकारी बता रहे थे, जिनका बेटा शिकागो( अमेरिका) मे इंजीनियरिंग कर रहा है। उसके पहले ही क्लास मे रोबोट लाकर रख दिया  गया और थ्योरी से ज्यादा प्रैक्टिकल पर जोर दिया जा रहा है।एवीएशन इंजीनियरिंग कालेज मे  हेलीकॉप्टर/ प्लेन लाकर खोलकर रख देते हैं, खोलो, जोड़ो ,सीखो, पढ़ो। हमारे यहाँ प्रैक्टिकल का पार्ट बहुत कम है। रोबोट तो शायद ही कोई कालेज अपने बच्चों को सीखने के लिए देता होगा। निश्चित रुप से बेहतर इंजीनियर बनाने के लिए जमाने के हिसाब से सिलेबस और शिक्षा पद्धति मे परिवर्तन लाना होगा। दूसरे इन कुकुरमुत्तों / तिलचट्टों पर लगाम लगाना होगा, पेस्ट कंट्रोल करके।

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