छद्म किसान

जो किसानों की मौत पर भोकासी फाड़ के रो रहे हैं, टेसुआ बहा रहे है, उनमे सबसे ज्यादा स्युडो किसान है, छद्म किसान! किसान की सरकारी परिभाषा  मे तो आते हैं पर खेती किसानी से उनका दूर दूर तक नाता नही हैं। इनमें से ज्यादातर तो गूगल और सोशल मीडिया से इतर खेत के बारे मे जानते ही नही। किसानों के सबसे बड़े हमदर्द वो हैं जो कभी नंगे पांव आरी डरेर पर चले नही, कभी खेत की मिट्टी सूंघी नही बल्कि जब गलती से कभी मिट्टी या पांव लग भी गया तो बोलते हैं" ओ शिट्ट"! हम जैसे छद्म किसानों को एक्चुअल किसानों की परेशानी से क्या वास्ता? हम तो सिर्फ जाते हैं अपना हिस्सा बटोरते हैं, सरकारी क्रय केंद्रों या बनियो के आढत पर बेच देते हैं और अपनी जमीन को खेत बनाये रखते हैं। वो जो उस मे बिया लगाते हैं, ट्रैक्टर या हल चलाते हैं, कटनी कराते हैं, वो क्या हैं? सरकारी परिभाषा मे वो किसान ही नही, वो अपनी उपज सरकारी क्रय केंद्रों पर बेच भी नही सकते!वो कृषक बीमा के हकदार नही, वो किसान क्रेडिट कार्ड के हकदार नही, वो किसान के रुप मे किसी भी सरकारी सुविधा के हकदार नही। सूखा राहत मिलेगा तो छद्म किसानों को जो शायद कहीं नौकरी कर रहे हैं या व्यवसाय कर रहे हैं।यहाँ तक कि यदि बाप के नाम जमीन है और वह बूढा हो चला है , खेती का सारा काम उसका बेटा कर रहा है फिर भी सरकार बाप को ही किसान मानेगी, बेटे को नही।भारतीय खेती किसानी "अदृश्य बेरोजगारी" से भी जूझ रही है। कहीं काम नही मिल रहा है तो किसानी कर लो।बोझ ज्यादा है । निवेश ज्यादा है मानवीय श्रम का, पूंजी के रुप मे खाद बीज पानी का। पर मिलता क्या है? वही पूंजी का रोटेशन! अपने श्रम का मूल्य भी शायद नही मिल पाता! यदि मानसून ने साथ नही दिया तो पूंजी भी नही निकलेगी। जो किसान कर्ज लेकर खेती कर रहे हैं उनकी तो दुर्दशा है! ग्रामीण सूदखोरों के चंगुल मे जो फंसा वो फिल्मी कहानियों की तरह फिर कभी उस दुश्चक्र से बाहर नही निकल सका चाहे कोई भी मदर इंडिया आ जाय। बैंको से लिए गये कर्ज भी कम घातक नही हैं। दक्षिण भारत मे किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के पीछे कर्ज न चुका पाने का दुश्चक्र ही तो है। वहाँ तो कैश क्राप मे बड़े बड़े कर्ज लेकर खेती करने का प्रचलन है पर फसल बीमा योजना स्ट्रांग न होने के कारण प्राकृतिक क्षति से हुए नुकसान की कीमत उन्हें अपने मौत से चुकानी पड़ती है। किसान आत्महत्या  वहाँ कर रहे हैं जहाँ खेती ने व्यवसाय का रुप ले लिया है। बिहार - उतरप्रदेश मे किसान खेती सिर्फ आजीविका के लिए करते हैं, ज्यादातर बटाई और हूंडा पर खेती करते हैं। उन्होंने इससे बड़ी आशायें नही पाल रखी है, ज्यादा इंवेस्टमेंट नही करते। यहाँ फसल बीमा सिस्टम भी तेजी पकड़ रहा है। धान गेहूं गन्ना करते हैं जो ज्यादा बरबाद भी नही होता। बिहार मे प्रत्येक साल बाढ आता है, हजारों एकड़ फसल बरबाद होने पर भी किसान आत्महत्या नही करते क्योंकि छद्म किसान तो शहरों मे आराम से सो रहे होते हैं, उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत खेती थोड़े ही ना है। तो फिर वो क्यों मरे?  खेती किसानी के देश मे किसानो की उन्नति या प्रगति उतनी तेजी  से नही हो रही है तो अवश्य ही कोई कारण होगा। सबसे पहले शिक्षा का अभाव है क्योंकि किसानो को बीज, खाद, तकनीक, विपणन की जानकारी का अभाव है।  सरकारी नीतियां सिर्फ उत्पादन पर जोर दे रही है।उनके सामने सुरसा के मुंह की तरह लगातार फैलती जा रही जनसंख्या को खिलाने का संकट सामने है।तो वो  हाइब्रिड बीजो पर लगातार शोध कर रहे है पर ये फसल अपनी मिट्टी के अनुकूल है या नही ,ये पता नही।" मृदा हेल्थ कार्ड बनाये जा रहे हैं पर जागरूकता का अभाव है। धुंआधार फर्टिलाइजर का उपयोग करने पर जोर दिया जा रहा है परंतु मृदा के स्वास्थय पर उसका क्या कुप्रभाव पड रहा है ,इसपर ध्यान नही दिया जा रहा है।मृदा की उर्वरकता बचाये रखने के लिए यूरिया: पोटाश: एन पी के का अनुपात 4:2:1 होना चाहिए जबकि कई जनपदो मे वह 43:9:1 का है। अब यहां तो मिट्टी की रेंड मार दी गई है।ऐसे मे हम उत्पादन क्या खाक करेंगे ,बल्कि खाद्यान के रुप मे हम जहर  उगा रहे है ,साथ मे भूमि को बंजर बना रहे है।इतना ही नही इससे हमारा उत्पादन व्यय भी बढ रहा है ।हमे फसल के स्पेशलाइज्ड उर्वरक का प्रयोग बढाना होगा लेकिन इसके लिए सबसे पहले किसानो को शिक्षित प्रशिक्षित करना जरुरी है। खाद बेचने वाली समितियां कहती है जब किसान किसी स्पेशलाइज्ड उर्वरक की डिमांड ही नही करेगा तो वह अपने यहां रखकर क्या करेगा? यही हाल कृषि यंत्रो के उपयोग और विपणन को लेकर है।प्रगतिशील किसानो को तो रेडियो, टीवी, समाचार पत्रो, कृषि गोष्ठियो के माध्यम से पता चल जाता है पर सुदूर ग्रामीण किसान तो आज भी उसी परंपरागत किसानी मे लगा है।वह भला कैसे इंस्पायर हो? धीरे धीरे वह खेती से विमुख हो रहा है, उसे शहरो मे मजदूर बनना ज्यादा श्रेयस्कर और अच्छा लगता है।आजादी के सतर साल बाद भी हम कृषि प्रधान देश हैं और कृषि पर आधारित जनसंख्या दो तिहाई से कम नही हो रही है तो उसका कारण नवीन रोजगार सृजन न होना है।गांवो से पलायन का एक महत्वपूर्ण कारण खेती का लाभप्रद न होना है।परंपरागत या आधुनिक खेती मे जो लागत है उसका रिटर्न उसे नही मिलता।यदि किसानो ने खेती मे पूंजी ऋण लेकर लगाया है तो वह अपनी जिन्दगी का जुआ खेल रहा है क्योकि आज भी 60 प्रतिशत खेती हेतु सिंचाई मानसून के साथ गैम्बल करना है।यदि ईश्वर ने साथ नही दिया तो किसानो के पास आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता ही नही है।व्यवसायिक फसलो की भी मार्केटिंग की समस्या है।  गन्ना मिले कर्ज मे डूबे है पर मिलें बंद नही हो रही है अर्थात यहां भी घपला है अर्थात किसानों की कीमत पर वो फल फूल रहे हैं।।सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना आंशिक रुप से और बडे किसानो के लिए ही सफल है, छोटे किसान आज भी बिचौलियो से प्रताडित है जहां उपज का सारा लाभ वो ले जाता है।सरकारी सिस्टम और लालफीताशाही के चंगुल मे फंसा बेबस किसान अब  मात्र खेतिहर मजदूर बनकर रह गया है।हालांकि कई गांवो मे भी जागरूक किसानो  ने मार्केटिंग के गुर को जानने का प्रयास किया है तथा  काफी लाभ भी कमाया है।इसका एक सफल उदाहरण बिहार  मे मखाने की खेती है।आज संपर्क एवं मार्केटिंग की बदौलत देश विदेश मे मखाने की बिक्री और निर्यात बढी है तथा  किसान लाभ कमा रहे है। किसानो ने मोती की खेती भी प्रारंभ किया है और इसमे प्रगति हो रही है।परंतु परंपरागत फसलो- धान, गेंहू, गन्ना, आलू, मक्का ईत्यादि के विपणन की व्यवस्था स्थायी रूप से सोचनी होगी। हालांकि आज भी मल्टीनेशनल कंपनियां इन उत्पादो का प्रोसेसिंग कर सील्ड पैकेटो मे मार्केटिंग कर काफी मुनाफा कमा रही है पर किसानो को इसका लाभ नही मिल रहा है।सरकारी योजनाओ मे किसानो को इस दिशा मे प्रोत्साहित किया जा सकता है।अर्थशास्त्र का नियम है कि  उत्पादन तभी बढेगा जब खपत बढेगी, या उसकी बिक्री बढेगी।बिक्री पर कोई जोर है ही नही, यह पूर्णरूपेण मुनाफाखोरो और बिचौलियो के हाथो मे है तो भला किसान खेती मे रुचि क्यो लेंगे? आज गांव मे वही किसानी करता है जिसको कही और कोई काम नही मिलता,मजबूरी वश वह गांव मे है, अनपढ है, तो खेती कर रहा है फिर कैसे हम उससे बेहतरी की उम्मीद कर सकते है? आज देश दाल की समस्या से रूबरू हो रहा है और हम देश विदेश भटक रहे है दाल खरीदने के लिए? क्यो न हम देश मे उसके उत्पादन बढाने लायक माहौल मुहैया करा रहे है? खेती लायक और उपजाऊ जमीन अपने देश जितनी कही नही है फिर भी मोजाम्बिक और अफगानिस्तान से दाल मंगाने की सोच रहे है। कभी प्याज के लिए पाकिस्तान के आगे हाथ फैलाते है क्यो?कृषि को जबतक अशिक्षा,लालफीताशाही, महाजन, मुनाफाखोरो व बिचौलियो से मुक्त नही करेंगे, स्थिति नही सुधरेगी और देश विकसित देशो की श्रेणी मे नही आ पाएगा क्योकि मात्र औद्यौगिक विकास से विकास दर नही बढ पाएगी और बढती जनसंख्या को हम खिलायेंगे क्या? इसलिये घर के सबसे नक्कारे सदस्य को खेती मे लगाने के बजाय योग्य और शिक्षित को इसमे लगाइये तभी वह इसमे कुछ इनोवेशन करेगा और खेती किसानी के दिन बहुरेंगे।

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