सिकुड़ते जा रहे हैं जंगल

वास्तव में इंसान के भौतिक विकास की कीमत प्रकृति चुका रहा है। यूं तो पर्वत, पहाड़ , नदी, सागर सभी पर इस विकास का असर हुआ है परंतु सबसे बड़ी क़ीमत  पेड़ पौधे और वन चुका रहे हैं। जब भी किसी सड़क का चौड़ीकरण होता है, तो सबसे पहले उसके किनारे लगे पेड़ों  को काट दिया जाता है। भले ही हम प्रतिवर्ष सघन  वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाकर पेड़ों को लगाते हैं, परंतु उस पुराने पेड़ की स्थिति तक पहुंचने में कई दशक लग जाते हैं। शहरों का विकास व बढ़ती जनसंख्या को खिलाने के लिए वनों की भूमि का बदलता उपयोग वनों के विनाश का प्रमुख कारण है। एक रिपोर्ट “2023 फारेस्ट डिक्लेरेशन असेसमेंट : ऑफ ट्रैक एंड फॉलिंग बिहाइंड” के अनुसार  यदि ग्लोबल वार्मिंग में हो रही वृद्धिदर  को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना है, तो जंगलों को बरकरार रखना बेहद जरूरी है। सच कहें तो ये जंगल हमारी दुनिया के फेफड़े हैं, जो न केवल प्रदूषित हवा को साफ करते हैं बल्कि जैवविविधता को भी बचाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। यह उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों के एक बहुत बड़े हिस्से को सोख लेते हैं, जिसकी वजह से तापमान में होती वृद्धि को रोकने में मदद मिलती है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा संसद में दी गई जानकारी के अनुसार देश में एक हेक्टेयर से बड़े क्षेत्रफल जिसमे पेड़ों की यानी हरित छतरी यानी हरियाली का घनत्व 10 प्रतिशत से ज्यादा हो, जंगल कहा जाता है। पारिस्थितिक संतुलन के लिए  कुल भूमि क्षेत्र  का  33 प्रतिशत वन क्षेत्र होना ही चाहिए ,लेकिन वर्तमान में भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 24 प्रतिशत क्षेत्र  ही वनाच्छादित है। वस्तुत वन प्रकृति के सबसे प्रचुर और बहुमुखी नवीकरणीय संसाधन हैं, जो एक साथ आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक लाभ और सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान करते हैं। यह न केवल जलवायु और जैव विविधता, बल्कि खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा, स्वच्छ पानी और  स्वास्थ्य के क्षेत्र में योगदान देता है। 

               बढ़ती जनसंख्या के कारण स्थान, आवास, भोजन की आवश्यकता, शहरीकरण, औद्योगीकरण के कारण के वनों की कटाई और भूमि उपयोग के अन्य रूपों में स्थायी रूपांतरण के परिणामस्वरूप वन क्षेत्र निरंतर कम हो रहा  हैं। लगभग  80 प्रतिशत वन हानि वनों को कृषि भूमि में बदलने के कारण हो रही है। मानवीय गतिविधियों में वृद्धि के कारण, विशेष रूप से दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, वनों की कटाई और गिरावट के कारण जंगलों में भारी गिरावट आई है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया में हर मिनट लगभग 21.1 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में फैले जंगल नष्ट हो रहे हैं। इस प्रकार पूरे वर्ष  में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में करीब 111 लाख हेक्टेयर में फैला जंगल खत्म हो जाता  है। इतनी  बड़ी संख्या में वनों के विनाश होने से लगभग 250 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ होगा, जो भारत के वार्षिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन के बराबर है। अबतक जंगलों को हो रहे नुकसान में 40 प्रतिशत से ज्यादा अकेले ब्राजील में हुआ है। वर्ष 2021 में कनाडा, रूस और अलास्का जैसे सुदूर उत्तरी क्षेत्रों में पाए जाने वाले ठंडे बोरियल वनों के करीब 80 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैले जंगलों नष्ट हो गये है,जो वर्ष 2001 के बाद सर्वाधिक है। पिछले 18 वर्षों में लगभग यूरोप के क्षेत्रफल  के बराबर  वन क्षेत्र नष्ट  हो चुका है,जो करीब 15.7 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले थे।

               युनाइटेड किंगडम स्थित फर्म यूटिलिटी बिडर के सर्वेक्षण के अनुसार वनों के विनाश के मामले में भारत, ब्राजील के बाद दूसरे स्थान पर है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार  भारत के लगभग उत्तर प्रदेश के आकार के बराबर 2.59 करोड़ हेक्टेयर में फैला जंगल गायब हो चुका हैं। रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत ने वर्ष 1990 से 2000 के बीच अपने 384 हजार हेक्टेयर में फैले जंगलों को खो दिया था। वहीं वर्ष 2015 से 2020 के बीच यह आंकड़ा बढ़कर 668 हजार हेक्टेयर हो गया है। देश में वन विनाश में 284 हजार हेक्टेयर की वृद्धि हुई , जो विश्व में सर्वाधिक है। इसमें से पूर्वोत्तर राज्यों में वन क्षेत्र लगभग एक हजार 20 वर्ग किलोमीटर कम हो गया है। देश के पर्वत, पहाड़ी और आदिवासी जिलों में वन क्षेत्र घटा है। पिछले दो वर्षों में देश के पर्वतीय क्षेत्रों में वनाच्छादन में 902 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है।  देश का वन और वृक्ष आच्छादन क्षेत्र 8.09 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।  हालांकि वर्ष 2019 की तुलना में इसमें 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है, जिसमें मध्य-प्रदेश में सर्वाधिक  वृक्षारोपण कार्य के चलते वृद्धि हुई है। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र राज्य हैं। देश के अन्य राज्यों द्वारा भी  वन क्षेत्रों को बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे है । महाराष्ट्र के अतिरिक्त अन्य पांच राज्यों में भी सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं, जिनमें आंध्र प्रदेश में  647 वर्ग किलोमीटर, तेलंगाना 632 वर्ग किलोमीटर, ओडिशा 537 वर्ग किलोमीटर, कर्नाटक 155 वर्ग किलोमीटर और झारखंड 110 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र बढ़ा है। खारे पानी में पाए जाने वाले मैंग्रोव भी  17 प्रतिशत बढ़े हैं और अब 4,992 वर्ग किलोमीटर में फैल गए हैं। इस समय जंगलों के कुल इलाके में घने जंगलों की हिस्सेदारी सिर्फ 3.04 प्रतिशत है, जबकि सबसे ज्यादा हिस्सा लगभग 9.34 प्रतिशत खुले जंगलों का है। देश में प्राकृतिक जंगल खुले जंगलों में बदलते जा रहे हैं । वर्ष 2021 तक  भारत में कुल वन आवरण 80.9 मिलियन हेक्टेयर है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.62 प्रतिशत है। इस दृष्टिकोण  से मध्य प्रदेश में सबसे अधिक वन आवरण है और  इसके बाद अरुणाचल प्रदेश का स्थान है। कुल भौगोलिक क्षेत्र में वनाच्छादन के प्रतिशत के मामले में मिजोरम में सबसे अधिक वन क्षेत्र है।

             अगर हम पृथ्वी पर वनों के आच्छादन और जनसंख्या की पारस्परिक तुलना करें तो पाते हैं कि हिमयुग की समाप्ति के बाद लगभग 10 हजार वर्ष पहले विश्व की 57% रहने योग्य भूमि वनों से आच्छादित थी, जो 6 अरब हेक्टेयर था। आज मात्र 4 अरब हेक्टेयर वन क्षेत्र ही शेष है। स्पष्ट है कि पृथ्वी ने अपना लगभग एक तिहाई जंगल खो दिया है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के आकार का दोगुना है। 5 हजार वर्ष पहले तक इसका केवल 10 प्रतिशत  ही नष्ट हुआ था। उस समय वैश्विक जनसंख्या बहुत छोटी थी और बहुत धीरे-धीरे बढ़ रही थी। दुनिया में लगभग 50 मिलियन थे। प्रति व्यक्ति पर्याप्त भोजन पैदा करने के लिए जितनी भूमि की आवश्यकता थी,वह बहुत बड़ी थी। जंगलों पर भोजन उगाने के लिए भूमि और ऊर्जा के लिए लकड़ी के रूप में जगह बनाने का बहुत कम दबाव था। सन् 1900 तक दुनिया में 1.65 अरब लोग थे, जो आज की तुलना में पाँच गुना कम था। कम कृषि उत्पादकता और ईंधन के लिए लकड़ी पर निर्भरता क कारण बड़ी मात्रा में वनीय भूमि को साफ़ करना पड़ा। पिछले मात्र 100 वर्षों में दुनिया ने उतना जंगल विनष्ट  कर दिया जितना उसने पिछले 9 हजार वर्षों में किया था।

           वनों  के विनाश में एक महत्वपूर्ण कारक वनों का आग है,  जो प्राकृतिक और मानवजनित दोनों है। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, मार्च -अप्रैल 2023 में जंगल में आग लगने की 381 सूचनाएं सूचना प्राप्त  हुई थी। आग का उपयोग वनों के प्रबंधन के लिए किया जाता रहा है, लेकिन  चिंताजनक बात  शुष्क मौसम, अपर्याप्त वर्षा, और उच्च तापमान, आदि के कारण आग की तीव्रता में वृद्धि होना है।वनों के क्षेत्र में हो रही लगातार कमी के कारण जैवविविधता  के नुकसान, ग्रीनहाउस गैसोलीन उत्सर्जन में वृद्धि,मिट्टी का कटाव,जल का क्षरण ,वर्षा कम होना,बाढ़ का खतरा बढ़ना,जंगल की आग का खतरा बढ़ना,मूल निवासियों का विस्थापन,मानवाधिकारों का हनन इत्यादि बढ़ा है।जंगलों के ख़त्म होने से न  केवल जलवायु परिवर्तन का ही ख़तरा है, बल्कि जंगल में रहने वाले सैंकड़ों आदिवासी समुदायों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। जानवरों की हज़ारों प्रजातियां भी संकट में है। पिछले दस वर्षों में देश में 52 टाइगर रिजर्व के वन क्षेत्र में 22.62 वर्ग किलोमीटर की गिरावट आई है, जो बाघ संरक्षण के लिए भी एक चुनौती बनकर सामने आई है। शिफ्टिंग एग्रीकल्चर स्वदेशी समुदायों द्वारा प्रचलित एक पारंपरिक कृषि तकनीक है जिसके  चलते तेजी वनों की कटाई हो रही है। सड़कों, राजमार्गों, बांधों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण कार्यों में अक्सर जंगलों को काटा  जा रहा है। डिफोरेस्टेशन ,जंगल की आग ,अवैध कटाई और भूमि अतिक्रमण , फसल भूमि, चरागाह और वृक्षारोपण के लिए रास्ता बनाने के लिए जंगलों को साफ किया जाता है। लॉगिंग उद्योग वनों की कटाई का एक अन्य प्रमुख कारण है। लकड़ी, लुगदी और कागज के लिए पेड़ों को काटा जाता है। जब जंगलों को साफ़ किया जाता है, तो पानी की गुणवत्ता ख़राब हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप जलजनित बीमारियाँ हो सकती है।जंगलों के साफ़ करने  से वर्षा पैटर्न बाधित हो सकता है और  इससे सूखा और बाढ़ में वृद्धि हो रही है।

    असल में  वर्ष 2014 में विश्व स्तर पर सहमति बनी थी कि वर्ष 2020 तक पेड़ों के नष्ट होने की गति को कम से कम आधा और वर्ष 2030 तक इसे पूरी तरह ख़त्म किया जाएगा, परंतु यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका। हालांकि सतत् प्रयास और दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते रूस, अमेरिका और चीन जैसे देशों में कुल वन क्षेत्रों  में वृद्धि हुई है। वर्ष 1982 के बाद से इन देशों के सम्मिलित  प्रयास ने  वैश्विक जंगलों में लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि  की है। भारत में भी इसी दृढ़ इच्छाशक्ति और सतत् प्रयास की आवश्यकता है। यदि पृथ्वी और मानव जाति को बचायें रखना है तो वनों का संरक्षण तथा उसका सस्टेनेबल डेवलपमेंट आवश्यक है।


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