गंगा नदी के अस्तित्व खतरे मे

   केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मार्च 2023 मे उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के 94 जगहों से गंगा जल की जांच कराई थी, जिसमें पाया गया कि अधिकांश स्थानों पर गंगा का पानी पीने योग्य क्या, नहाने लायक भी नहीं रह गया है। शहर के सीवरेज ने गंगा जल की ऐसी दुर्दशा कर दी है कि  गंगा के पानी को फिल्टर तक नहीं किया जा सकता है। पिछले दो वर्षों में पटना के घाटों पर गंगा जल का प्रदूषण 10 गुना अधिक हो गया है। पानी के प्रदूषण ,घटते जल स्तर, निरंतर कम होते नदी पाट, सिल्टों के जमाव से नदी सिमट  रही है। स्वाभाविक  रूप से गंगा नदी धीरे धीरे मृतप्राय होने की स्थिति में आ रही है। आईआईटी खड़गपुर के प्रोफेसर अभिजीत मुखर्जी के साथ कनाडियन शोधकर्ता सौमेंद्र नाथ भांजा और ऑस्ट्रिया के योशिहीदी वाडा ने  2015 से 2017 के मध्य गंगा नदी पर किए अपने अध्ययन में कहा  कि गंगा  नदी में हरिद्वार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। लगभग दो दशकों से गर्मियों के सीजन में गंगा के पानी के स्तर में निरंतर कमी देखी जा रही है। मई महीने में प्रयागराज के पास फाफामऊ में गंगा के पानी का स्तर इतना कम हो जाता है कि लोग इसे आसानी से पैदल ही पार कर सकते थे। वर्ष 1999 से 2013 के बीच गर्मी के सीजन में गंगा के पानी में प्रत्येक साल 0.5 से 38.1 सेमी तक की कमी दर्ज की गई है। शोधकर्ताओं ने यह भी  कहा  कि अगले तीस वर्षों तक गंगा में भूजल का हिस्सा लगातार घटता रहेगा। यह सिलसिला जारी रहने की स्थिति में नदी के पर्यावरण पर तो बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ही, गंगा की घाटी में रहने वालों  के सामने भोजन का गंभीर संकट भी पैदा हो सकता है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने वर्ष 1958 से लेकर वर्ष 1972 के बीच गंगा बेसिन की गुप्त तरीके से लगभग 8 हजार सैटेलाइट तस्वीरें ली थी, जो वर्ष  2018 में पब्लिक की गई । उस समय की तस्वीरों के साथ आज के तस्वीरों के विश्लेषण से पता चलता है कि गंगा नदी ने अपना रंग, रूप और रास्ता अनेक स्थानों पर बदल लिया है। गंगा के बड़े- बड़े और चौड़े बहाव क्षेत्र अब पतली शाखाओं में बदल गए हैं। वर्ष 1965 में हरिद्वार में गंगा नदीं की मुख्य धारा की लंबाई 3.63 वर्ग किलोमीटर थी, जो अब बढ़कर 6.67 वर्ग किलोमीटर हो गई है, लेकिन नदी का बहाव  रोकने वाला किनारा 17.85 वर्ग किलोमीटर से घटकर 7.07 वर्ग किलोमीटर हो गया है।  1965 में बिजनौर में गंगा नदी की मुख्य धारा की लंबाई 15 वर्ग किलोमीटर थी, जो अब बढ़कर 19 वर्ग किलोमीटर हो चुकी है। कानपुर में गंगा नदी की लंबाई 1965 में 15.5 वर्ग किलोमीटर थी, जो अब बढ़कर 17.63 वर्ग किलोमीटर हो गई है लेकिन कछार का इलाका तेजी से घट गया है। यह 20.62 वर्ग किलोमीटर से घटकर 4.98 वर्ग किलोमीटर हो चुका है।1976 में प्रयागराज में नदी का कुल क्षेत्रफल 43.88 वर्ग किलोमीटर था, जो अब घटकर 19.02 वर्ग किलोमीटर हो गया है।  भागलपुर में गंगा नदी की कई शाखाएं थीं, लेकिन मुख्य धारा काफी ज्यादा चौड़ा है। यहां पर मुख्य धारा की लंबाई 40 वर्ग किलोमीटर थी, जो बढ़कर 45 वर्ग किलोमीटर हो चुकी है यानी चौड़ाई कम होती जा रही है, नदी की लंबाई बढ़ती जा रही है। फरक्का में नदी की मुख्य धारा की लंबाई में काफी ज्यादा अंतर आया है। यह पहले 43.34 वर्ग किलोमीटर था जो अब बढ़कर 56.85 वर्ग किलोमीटर हो गया है। 

          यद्यपि देवप्रयाग और रुद्रप्रयाग में गंगा का पानी अपेक्षाकृत साफ दिखता है लेकिन मैदानी क्षेत्रों में बढ़ते ही स्थिति गंभीर होती जा रही है। नदी के कुछ हिस्सों में प्रदूषण इतना अधिक बढ़ चुका है कि वहां नहाना खतरे से खाली नहीं है। कानपुर में चमड़ा उद्योग से निकलने वाले रसायन सीधे पानी में जा रहे हैं, इसलिए नदी में पानी की सतह पर झाग तैरता दिखता है। नदी का पानी लाल रंग की दिखता है। पानी में ऑक्सीजन की कमी होने से कई जलीय जीव समाप्त होते जा रहे हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के अनुसार, गंगा में डॉल्फिन की संख्या 1980 के दशक के 5,000 से घट कर अब 1,800 पर आ पहुंची है। शुद्ध गंगा नदी के पानी की कमी घनी आबादी वाले उत्तरी भारतीय मैदानों की घरेलू जल आपूर्ति, सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकताओं, नदी परिवहन, पारिस्थितिकी आदि को खतरे में डाल सकती है। नदी के पानी में कमी का खाद्य उत्पादन पर सीधा प्रभाव पड़ता है, जो इस क्षेत्र में रहने वाली 100 मिलियन से अधिक आबादी के लिए खतरे का संकेत है। नदी का जल स्तर इस तरह घट रहा है कि हाल में गंगा नदी शुरू की गई क्रूज सेवा एक जगह कम पानी होने के कारण तथा सिल्ट होने के कारण कई दिनों तक एक ही जगह खड़ी रही। रिपोर्ट के अनुसार  वाराणसी में गंगा नदी घाट से लगभग सात से दस फ़ीट अंदर की ओर खिसक गयी है। यहां गंगाजल का स्तर पूर्व से लगभग छह फ़ीट नीचे गिर गया है। नदी में प्लास्टिक के थैले और पुराने कपड़ों का अंबार लगा है। गंगाजल अब पीने योग्य तक नहीं रह गया है। तो क्या अपने बढ़ते प्रदूषण और सूखते जल के कारण गंगा आज सचमुच नाले में परिवर्तित नहीं हो रही है? जाहिर  है आज गंगा गंभीर संकट से गुजर रही है। इसका अस्तित्व खतरे में है। यदि गंगा में प्रदूषण इसी तरह बढ़ता रहा और सरकार यदि इसे संरक्षित करने का कोई कठोर उपाय नहीं करती है, तो संभवतः पचास वर्ष बाद गंगा नदी किताबों के पन्नों में सिमटी नजर आयेगी

       राष्ट्रीय नदी के रूप में सम्मानित गंगा देश की एक चौथाई जल की आपूर्ति करती है।  हिंदुओं के लिए गंगाजल सर्वाधिक पवित्र है। धर्मग्रंथों के अनुसार मोक्ष दायिनी गंगा में डुबकी लगाने से  ही जन्म जन्मान्तर के पापों से छुटकारा मिल जाता है। गंगा को इस विकट स्थिति में पहुंचाने के पीछे शहरों के सीवरों का गंदा पानी, प्लास्टिक थैलियों का निस्तारण,उद्योगों से निकला रासायनिक कचरा, डैम और बैराज का निर्माण , लाशों को जलाना आदि जिम्मेदार है।  हिमालय में चीन द्वारा निर्मित विभिन्न डैम परियोजनाओं का असर भी गंगा के जल स्तर पर पड़ रहा है। हिमालयी क्षेत्र  में अनियंत्रित और अनियोजित विकास जिम्मेदार है। गंगा प्रदूषण से जैव विविधता पर खतरा उत्पन्न  हो गया है जिससे कई जलीय जीव और पर्यावरणीय पदार्थो का अस्तित्व ही समाप्ति के कगार पर है। हरिद्वार में गंगा नदी से पत्थरों को निर्माण कार्य के लिए अवैध रूप से निकाला जा रहा है, जिससे गंगा के तटबंधों को नुकसान हो रहा है। पर्यावरण को हो रही क्षति का आकलन किये बिना उत्तरकाशी, अलखनंदा और भागीरथी नदी पर अनियोजित डैम के निर्माण से गंगा का प्राकृतिक प्रवाह प्रभावित हो रहा है। कोलकाता में लगभग 26 सीवरों का पानी बिना शोधित हुए गंगा में प्रवाहित हो रहा है। बिहार के भागलपुर में सिंचाई बैराज और प्रदूषण ने गंगा के इको सिस्टम प्रभावित कर दिया है। नदी किनारे स्थित शहरों के सीवर से निकला गंदा पानी नदी को सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहा है।

         गंगा नदी की सफ़ाई के लिए वर्ष  1985 में पंद्रह वर्षीय गंगा एक्शन प्लान को वाराणसी में लांच किया गया था , जिसमें वर्ष 2000 तक गंगा को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त करने का लक्ष्य था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार गंगा एक्शन प्लान के अंतर्गत अबतक 36 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन 38 वर्ष के बाद भी गंगा को प्रदूषण की समस्या से छुटकारा नहीं मिला है। निश्चित रूप से इसके लिए सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव ही जिम्मेदार है। वर्ष 2009 में बनी नेशनल गंगा रीवर बेसीन अथारिटी का लक्ष्य था कि वर्ष 2020 तक गंगा को प्रदूषण मुक्त कर इसे संरक्षित करना।  मिशन क्लीन गंगा प्रोग्राम के पहले चरण में शहरों में  घरों और उद्योगों से निकलने वाले गंदे पानी और कचरे को साफ़ करने पर ध्यान दिया जाना था। गंगा के प्रदूषण में लगभग 35 प्रतिशत जिम्मेदार राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के  सीवरों की निगरानी की जानी थी। गंगा संरक्षण के लिए गंगा नॉलेज सेंटर का गठन किया गया । नदी में कचरा गिरने से रोकने के लिए एस टीपी प्लांट बनाये जा रहे हैं और तट के पास लगी कम से कम 400 फैक्ट्रियों को इससे दूर ले जाया जा रहा है। परंतु 38 वर्षों के प्रयास के बाद भी गंगा में बिना किसी ट्रीटमेंट के 60 प्रतिशत सीवेज की निकासी जारी है । गंगा की स्वच्छता संबंधी  पीएम  की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय गंगा परिषद भी लगभग निष्क्रिय हो गई है। नमामि गंगे योजना का उद्देश्य  गंगा के बिगड़े रंग-रूप को बदलना और प्रदूषण पर रोक लगाना था।  वर्ष 2014-15 से लेकर 2020-2021 तक इस नमामि गंगे योजना के अंतर्गत 30 हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिया गया, परंतु स्थिति में बहुत सुधार नहीं हो पाया है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने भी  गंगा नदी की साफ-सफाई के लिए चलने वाली तमाम परियोजनाओं और उनपर होने वाले भारी-भरकम खर्च पर असंतोष जताया था। नदियों  के पुनर्जीवित करने का सबसे बड़ा उदाहरण टेम्स नदी है,जो वर्ष 1950 तक पूरी तरह सीवर में बदल गयी थी। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा लगभग समाप्त हो गयी थी, जिससे जलीय जीवों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा था। गंभीरता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1964 में नदी सफ़ाई अभियान चलाया। इस अभियान को सफ़लता पूर्वक 1970 के दशक के मध्य तक पूरा कर लिया गया। यदि टेम्स नदी को प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि गंगा को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता है,बस राजनैतिक इच्छाशक्ति एवं सामाजिक सोच बदलने की आवश्यकता है। 


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