क्या गंगा नदी का अस्तित्व खतरे में है

कुछ साल पहले ऑस्ट्रेलियाई एफ एम  रेडियो के आर जे  काइली सेंडीलैंड्स ने गंगा नदी के बढ़ते प्रदूषण की चर्चा के क्रम में इसे कचराघर कहकर भारतीयों को भड़का दिया था। भारतीय आस्था के प्रतीक पावन गंगा के बारे में इस अनुचित टिप्पणी का इतना विरोध हुआ कि उन्हें आखिरकार माफी मांगनी पड़ी। हालांकि काइली द्वारा भारतीय जनमानस को ठेस पहुंचाना गलत था लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से सोचें तो जिस संदर्भ में सैंडीलेंड्स ने यह टिप्पणी की थी , क्या वह ग़लत थी ? क्या वाकई में अपने बढ़ते प्रदूषण और सूखते जल के कारण गंगा आज सचमुच नाले में परिवर्तित नहीं हो रही है? आज गंगा गंभीर संकट से गुजर रही है। इसका अस्तित्व खतरे में है। यदि गंगा में प्रदूषण इसी तरह बढ़ता रहा और सरकार इसे संरक्षित करने का कोई कठोर उपाय नहीं करती है, तो संभवतः पचास वर्ष बाद गंगा नदी किताबों के पन्नों में सिमटी नजर आये अर्थात् गंगा नदी का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।  स्थिति यह है कि एक रिपोर्ट के अनुसार  वाराणसी में गंगा नदी घाट से लगभग सात से दस फ़ीट अंदर की ओर खिसक गयी है। दशाश्वमेध घाट से गंगा नौ फीट, राजघाट से सात फ़ीट और अस्सी घाट से पांच फ़ीट अंदर खिसक गयी है। यहां गंगाजल का स्तर पूर्व से लगभग छह फ़ीट नीचे गिर गया है। वर्ष 1971 में वाराणसी में गंगा की धारा में काफ़ी वेगवान थी। सभी घाट कूड़ेदान में तब्दील हो रहे हैं।गंगा में प्लास्टिक के थैले और पुराने कपड़ों का अंबार लगा है। गंगाजल अब पीने योग्य तक नहीं रह गया है।    

               आईआईटी खड़गपुर में भूविज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर अभिजीत मुखर्जी ने कनाडा के शोधकर्ता सौमेंद्र नाथ भांजा और ऑस्ट्रिया के योशिहीदी वाडा के साथ मिलकर 2015 से 2017 के मध्य गंगा नदी पर एक अध्ययन किया था , जिसमें कहा गया कि भूजल की कमी से नदी की स्थिति प्रभावित हो रही है। गंगा में लगातार घटता हुआ जलस्तर बेहद चिंता का विषय है। नदी में हरिद्वार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। लगभग दो दशकों से गर्मियों के सीजन में गंगा के पानी के स्तर में निरंतर कमी देखी जा रही है। निरंतर सूख रही गंगा एक बड़े संकट की ओर अग्रसर है। मई महीने में प्रयागराज के पास फाफामऊ में गंगा के पानी का स्तर इतना कम हो गया था कि लोग इसे आसानी से पैदल ही पार कर सकते थे और नदी में नावों की आवाजाही ठप हो गई थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 1999 से 2013 के बीच गर्मी के सीजन में गंगा के पानी में प्रत्येक साल 0.5 से 38.1 सेमी तक की कमी दर्ज की गई है। शोधकर्ताओं ने यह भी  कहा  कि अगले तीस वर्षों तक गंगा में भूजल का हिस्सा लगातार घटता रहेगा। यह सिलसिला जारी रहने की स्थिति में नदी के पर्यावरण पर तो बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ही, गंगा की घाटी में रहने वालों  के सामने भोजन का गंभीर संकट भी पैदा हो सकता है। यद्यपि देवप्रयाग में गंगा का पानी अपेक्षाकृत साफ दिखता है लेकिन मैदानी क्षेत्रों में बढ़ते ही स्थिति गंभीर होती जा रही है। नदी के कुछ हिस्सों में प्रदूषण इतना अधिक बढ़ चुका है कि वहां नहाना खतरे से खाली नहीं है।  हिंदू अपने लाशों को नदी के घाट पर जलाते हैं और चिता की राख को नदियों में बहाते हैं। कानपुर में चमड़ा उद्योग से निकलने वाले रसायन सीधे पानी में जा रहे हैं,इसलिए नदी में पानी की सतह पर झाग तैरता दिखता है।कानपुर के ही पास एक जगह पर गंगा इतनी ज्यादा प्रदूषित हो गयी है कि वो लाल रंग की दिखती है। पानी में ऑक्सीजन की कमी होने से कई जलीय जीव समाप्त होते जा रहे हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के अनुसार, गंगा में डॉल्फिन की संख्या 1980 के दशक के 5,000 से घट कर अब 1,800 पर आ पहुंची है। पिछले कुछ दशकों में गंगा नदी के कई निचले भारतीय इलाकों में निम्न जल स्तर देखा गया है। शुद्ध गंगा नदी के पानी की कमी घनी आबादी वाले उत्तरी भारतीय मैदानों की घरेलू जल आपूर्ति, सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकताओं, नदी परिवहन, पारिस्थितिकी आदि को खतरे में डाल सकती है। नदी के पानी में कमी का खाद्य उत्पादन पर सीधा प्रभाव पड़ता है, जो इस क्षेत्र में रहने वाली 100 मिलियन से अधिक आबादी के लिए खतरे का संकेत है। नदी का जल स्तर इस तरह घट रहा है कि हाल में गंगा नदी शुरू की गई क्रूज सेवा एक जगह कम पानी होने के कारण तथा सिल्ट होने के कारण कई दिनों तक एक ही जगह खड़ी रही।

         देश की एक चौथाई जल की आपूर्ति गंगा नदी से होती है। इसे ‘राष्ट्रीय नदी’ का दर्जा दिया गया है। धार्मिक रूप से हिंदुओं के लिए गंगाजल पवित्र माना जाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार गंगा मोक्ष दायिनी है। इसमें एक डुबकी लगाने पर ही जन्म-जन्म के पापों से छुटकारा मिल जाता है। गंगाजल को सैकड़ों वर्ष तक सहेज कर रखा जा सकता है, इसमें न तो कीड़े लगते हैं और न ही खराब होता है। गंगा, दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक है, जिसके मैदानों ने पिछले तीन हजार वर्षों से अधिक समय से भारतीय सभ्यता को संभाला है। लेकिन आज इसका अस्तित्व खतरे में है। गंगा को इस स्थिति में पहुंचाने के पीछे कई कारण हैं- जैसे-शहरों के सीवरों का गंदा पानी, उद्योगों से निकला रासायनिक कचरा, डैम और बैराज का निर्माण आदि। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि हिमालय में चीन द्वारा निर्मित विभिन्न डैम परियोजनाओं का असर भी गंगा के जल स्तर पर पड़ रहा है। चीन में  तिब्बत से निकलने वाली और दक्षिण एशिया की ओर बहने वाली अधिकतर नदियों की धारा बदलने की योजना पर काम चल  रहा है। हालांकि गंगा का उद्गम गंगोत्री है,लेकिन  नदी जैसे करनाली,गंडक और कोशी का उद्गम स्थल तिब्बत है, जो गंगा की प्रमुख सहायक नदियां हैं। यदि इनमें जल की कमी होती है, तो गंगा भी निश्चित रूप से प्रभावित होगी। गंगा के प्रदूषण से जैव विविधता को खतरा है। कई जलीय जीव और पर्यावरणीय पदार्थो का अस्तित्व ही समाप्ति के कगार पर है। हरिद्वार में गंगा नदी से पत्थरों को निर्माण कार्य के लिए अवैध रूप से निकाला जा रहा है, जिससे गंगा के तटबंधों को नुकसान हो रहा है। पर्यावरण को हो रही क्षति का आकलन किये बिना उत्तरकाशी, अलखनंदा और भागीरथी नदी पर अनियोजित डैम के निर्माण से गंगा का प्राकृतिक प्रवाह प्रभावित हो रहा है। कानपुर में गैर-शोधित कचरा गंगा को काफ़ी नुकसान पहुंचा रहे हैं। कोलकाता में लगभग 26 सीवरों का पानी बिना शोधित हुए गंगा में प्रवाहित हो रहा है। वाराणसी में अधजले मृत शरीरों को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। प्रत्येक वर्ष लगभग 35 हजार ऐसे मृत शरीर  गंगा में प्रवाहित किये जा रहे हैं। बिहार के भागलपुर में सिंचाई बैराज और प्रदूषण ने गंगा के इको सिस्टम प्रभावित कर दिया है। आज गंगा के डॉल्फ़िन खत्म होने के कगार पर हैं।

         गंगा की सफ़ाई के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में पंद्रह वर्षीय गंगा एक्शन प्लान को वाराणसी में लांच किया था जिसमें वर्ष 2000 तक गंगा को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त करने का लक्ष्य था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार गंगा एक्शन प्लान के अंतर्गत अबतक 36 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन 38 वर्ष के बाद भी गंगा को प्रदूषण की समस्या से छुटकारा नहीं मिला है। विशेषज्ञों का कहना है कि सीवरों से निकलने वाला गंदा पानी गंगा को सबसे ज्यादा प्रदूषित करते हैं। हालांकि सभी राज्य सरकारों के पास सीवर के गंदे जल का उपचार करने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण विभाग, हेल्थ विभाग हैं, लेकिन फ़िर भी कोई सफ़लता नहीं मिली है। निश्चित रूप से इसके लिए सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव ही जिम्मेदार है। भारत सरकार ने वर्ष 2010 में फ़िर गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की योजना बनायी और इसके लिए केंद्र सरकार को विश्व बैंक से एक बिलियन डॉलर का कर्ज भी प्राप्त हुआ। इस बार  योजना के कार्यान्वयन का जिम्मा 2009 में बनी नेशनल गंगा रीवर बेसीन अथॉरिटी ( एनजीआरबीए ) को सौंपा गया। एनजीआरबीए का लक्ष्य था कि वर्ष 2020 तक गंगा को प्रदूषण मुक्त कर संरक्षण प्रदान करना मिशन क्लीन गंगा प्रोग्राम के पहले चरण में समग्रतावादी पद्धति अपनाया गया , जिसमें गंगा के बेसिन को स्वच्छ बनाने पर जोर दिया गया। मिशन में शहरों में  घरों और उद्योगों से निकलने वाले गंदे पानी और कचरे को साफ़ करने पर ध्यान दिया जाना था। पांच राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में सीवरों के गंदे पानी की निगरानी की जानी थी, क्योंकि कुल प्रदूषण में 35 फ़ीसदी हिस्सेदारी इन्हीं राज्यों की है। इसके अलावा गंगा संरक्षण के लिए गंगा नॉलेज सेंटर का गठन किया गया ।  गंगा को साफ करने के लिए तमाम योजनाएं चल रही हैं। नदी में कचरा गिरने से रोकने के लिए और ट्रीटमेंट प्लांट बनाये जा रहे हैं और तट के पास लगी कम से कम 400 फैक्ट्रियों को दूर ले जाया जा रहा है। स्थिति यह है कि 38 वर्षों के प्रयास के बाद भी गंगा में बिना किसी उपचार के 60 फीसदी सीवेज की निकासी जारी है । इस राष्ट्रीय नदी के बिगड़े रंग-रूप को संवारने के लिए 30 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का बजट बनाया गया था। गंगा की स्वच्छता के हालात का जायजा लेने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय गंगा परिषद भी निष्क्रिय हो गई है। इस परिषद के गठन को करीब छह वर्ष बीतने वाले हैं और अभी तक सिर्फ एक बार ही इस परिषद की बैठक की जा सकी है ।मोदी सरकार ने गंगा की स्वच्छता को उच्च प्राथमिकता वाला काम बताते हुए नमामि गंगे नाम योजना की घोषणा की ,जिसका मकसद गंगा के बिगड़े रंग-रूप को बदलना और प्रदूषण पर रोकथाम था। हालांकि, इस पर काम 2016, अक्टूबर के आदेश के बाद से ही शुरू हुआ। वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर 2020-2021 तक इस नमामि गंगे योजना के तहत पहले 20 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का रोडमैप तैयार किया गया था जो कि बाद में बढाकर 30 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया, परंतु स्थिति में बहुत सुधार नहीं हो पाया है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने भी  गंगा नदी की साफ-सफाई के लिए चलने वाली तमाम परियोजनाओं और उनपर होने वाले भारी-भरकम खर्च पर असंतोष जताया था। यहां यह तथ्य ध्यातव्य है कि ब्रिटेन के लंदन में बहने वाली टेम्स नदी भी वर्ष 1950 तक पूरी तरह सीवर में तब्दील हो गयी थी। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा समाप्त हो गयी थी। जलीय जीवों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा था। ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1964 में नदी सफ़ाई अभियान चलाया। इस अभियान को सफ़लता पूर्वक 1970 के दशक के मध्य तक पूरा कर लिया गया। यदि टेम्स नदी को प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि गंगा को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता है,बस राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। 

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