फिल्म समीक्षा -कांतारा

"कांतारा" अर्थात रहस्यमयी  जंगल नामक कन्नड़ फिल्म मनुष्य और प्रकृति तथा  ग्रामीणों और जमींदारों के मध्य संघर्ष की सदियों पुरानी कहानी कहती है। इस कहानी में स्थानीय लोक देवी- देवता , अंधविश्वास,रीति रिवाजों, मान्यताओं की छौंक लगती रही है। ऐसे में लेखक, निर्देशक, एक्टर ऋषभ शेट्टी  कर्नाटक के तटीय क्षेत्र के कुन्दूपुरा इलाके की एक लोकगाथा को आधार बनाकर एक रहस्य- रोमांच से भरी कहानी लेकर आते हैं, जिसने अपने अनोखे विषय, सिनेमैटोग्राफी, एक्टिंग, ड्रामा, एक्शन, म्यूजिक से बाक्स आफिस पर तहलका मचा दिया है। अमूमन ऐसे विषय कामर्शियल फिल्मों के नहीं होते हैं। यह फिल्म जंगल और जंगली जमीन पर स्थानीय लोगों के पैतृक अधिकार को छीनने -बचाने का संघर्ष है। 
कहानी छोटी सी है कि एक राजा के पास ऐश्वर्य, वैभव, दौलत सब है, परंतु सुख-शांति नहीं है। वह इसकी तलाश में  एक गांव कुन्दूपुरा पहुंचता है, जहां पत्थर के रूप में मौजूद ग्राम देवता पंजुरी  के दर्शन से उसे असीम शांति मिलती है।राजा उस लोक देवता को अपने राजमहल ले जाना चाहता है। देवता भूत कोला अर्थात  मनुष्य के शरीर में प्रवेश करके राजा से पूछता है कि मुझे यहां से ले तो जाओगे, बदले में इन गांव वालों को क्या दोगे? "जो आप कहेंगे" राजा कहता है। देवता कहता है" तुम जोर से इन जंगलों में आवाज लगाओ और जहां तक तुम्हारी आवाज जाएगी, वहां तक की जमीन इन गांव वालों की हो जाएगी"। राजा अपना वादा पूरा करता है। ग्रामीण यह मानने लगते हैं कि उनके पास जो जमीन, गांव या जंगल है वो उनके "डेमी गाॅड" या लोक देवता पंजुरी के द्वारा प्रदत्त है। डेढ़ सौ साल बाद उस राजा के एक वंशज की नीयत बदल जाती है और वे गांव की वह जमीन वापस लेना चाहते हैं। इधर सरकार भी  रिजर्व फारेस्ट घोषित कर उस जंगल को प्रतिबंधित कर देती है। एक घटना देखिए कि एक आदमी बालों को झड़ने से रोकने वाली जड़ी-बूटियाँ लाने के लिए जंगल में जाता है तो वन अधिकारी उसे थप्पड़ मारकर पूछता हैं, "क्या यह जंगल आपके बाप की है ?" जवाब मिलता है "हां"। असल में जंगली  उत्पादों पर वहां के मूल निवासी अपना अधिकार समझते है। वे पुलिस वाले के आदेशों को मानने से इंकार करते हैं। कहते हैं "वह कौन होता है हमें ये सब बातें बताने वाला?" अंत में भूत कोला अर्थात मनुष्य के शरीर में लोक देवता का प्रवेश ही उनके कष्टों का अंत करता है।  फिल्म में खलनायक के बारे पता लगाना मुश्किल है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, अच्छे लगने वाले किरदार बुरे और बुरे लगने वाले किरदार अच्छे लगने लगते हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन ढंग से फिल्माया गया है। ऋषभ शेट्टी ने लेखन, अभिनय और निर्देशन के सभी  रोल में अपना काम बहुत बढ़िया किया है। 
अभिनेता के रूप में उन्होंने शिवा के किरदार में उत्साह, उमंग, ऊर्जा को दर्शाया है । क्लाइमैक्स में तो  उसका अभिनय और डांस देखने लायक है। फिल्म की विशिष्टता" भूत कोला प्रथा, कंबाला दौड़ (भैंसों की दौड़), जंगली सुअरों का शिकार, डेमी गाॅड पंजुरी का डांस और वेशभूषा है। भूत कोला प्रथा मे इंसान दैवीय वेषभूषा, वस्त्र, आभूषण और श्रृंगार धारण करता है। फिर देवता के लिए नाच और अन्य कलाओं का प्रदर्शन करता है। इस प्रक्रिया में  कब उसमे देवता की आत्मा समा जाती है,पता नहीं चलता। कहानी प्रकृति और शहरी सभ्यता से दूर रहने वाले प्रकृति-पुत्रों से जुड़ी है। यह प्रकृति और देवता में मनुष्य के सहज विश्वास की बात करती है। इंसान की आस्था और मन में गहरे उतरे विश्वासों की बात करती है। कोई इन्हें अंधविश्वास कह सकता है, मगर कहानी आपको एक अलग दुनिया में ले जाती है, जो रोमांच और रहस्य से भरा है। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, देखने वाले की जिज्ञासा बढ़ाती है। यहां एक्टरों का अभिनय और एक्शन, मेक-अप, लाइट, कैमरावर्क और बैकग्राउंड म्यूजिक शानदार है। कहानी के मध्य शिवा और लीला की प्रेम कहानी भी है तो शिवा का अल्हड़पन और अलमस्ती भी है। फिल्म का क्लाइमेक्स कुछ ऐसा है कि फिल्म खत्म होने के बाद भी आप उठना नहीं चाहेंगे।  निर्देशक क्षेत्र के लोगों की जीवन शैली के जंगली, जीवंत और युवा जोश से परिचित कराकर हर दृश्य जानदार बना देते हैं। सिनेमैटोग्राफर अरविंद कश्यप के अद्भुत सिनेमैटोग्राफी, बी. अजनीश लोकनाथ द्वारा रचित अत्यधिक कल्पनाशील संगीत बीट्स के साथ बहुत अच्छी तरह से सामंजस्य बैठाता हैं। क्लाइमेक्स में तो  संगीत अपने चरम पर है। फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स बहुत अच्छे और इफेक्टिव हैं। कलर इफेक्ट आंखों को बहुत सुकून देने वाला है।  फिल्म में दक्षिण कन्नड़ लोकसंगीत का स्थानीय फीलिंग तो है ही, साथ में एक रहस्यमयी तत्व भी है, जो जंगल के मिथकीय कहानी को एक माया जैसा आवरण देता है।

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