जनता स्टोर

लेखक नवीन चौधरी के उपन्यास" जनता स्टोर"  के नाम से  प्रथमदृष्टया यह लगता है कि जैसे किताब का केंद्रबिंदु  कोई फेमस बुक स्टोर होगा, जो युनिवर्सिटी के पास राजनीतिक हलचलों का अखाड़ा होगा, परंतु शुरूआती पेजों मे ही लेखक ने स्पष्ट कर दिया  कि यह जयपुर का एक एरिया है और व्यवसायिक गतिविधियों के साथ साथ छात्र राजनीति का अड्डा है। उपन्यास की शुरुआत बड़ी रोमांचक तरीके से की गयी है, लग रहा था ,जैसे माफियाओं वाली किसी फिल्म का दृश्य चल रहा है, हालांकि उस दृश्य का सस्पेंस किताब के अंततक बरकरार  रहता है। किताब पूरी तरह से राजस्थानी राजनीति, छात्र राजनीति, जातीय वर्चस्व की लड़ाई, सता के दावपेंच, विश्वासघात, षडयंत्र, प्रतिशोध की कहानी कहती है। मुख्यत राजस्थानी राजपूतों और जाटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई और उसमे ब्राह्मणवाद की छौंक, जो हमेशा से सत्ता के शीर्ष पर राजपूतों को बैठाती आयी है, परंतु इस उपन्यास मे अंत मे ब्राह्मणों द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लेने की दास्तान बुनी गयी है। छात्र राजनीति पर कई फिल्में बनी है जिसमे सबसे प्रसिद्ध " शिवा" का इसमे जिक्र भी है।हास्टलों और डेस्कालर के मध्य मारपीट, संघ के चुनाव मे पार्टियों का हस्तक्षेप, अपने हित मे इन छात्र नेताओं का उपयोग इत्यादि अच्छे तरीके से कहानी मे पिरोया गया है। एकबात तो स्वयं सिद्ध है कि राजनेताओं ने छात्रशक्ति का हमेशा दुरूपयोग ही किया, भले ही उसमे से अनेक राज्य और देश की राजनीति मे अपना स्थान बनाने मे सफल रहे। राजनीति मे पैसे का महत्व सुरेश की जीत दर्शाता है तो मयुर की उपाध्यक्ष के रुप मे हार साम-दाम दंड -भेद की पराकाष्ठा है ,हालांकि उसी का उपयोग कर मयूर अगलीबार अध्यक्ष भी बनता है। राजनीति मे कभी कोई किसी का सगा नही होता, वरना न तो दुर्गाराम, सिकंदर को छोड़कर जाता और न राज्येश राघवेंद्र के साथ वैसा करता।राघवेंद्र और मयूर के मध्य विवाद यह भी दिखाता है दोनों एक ही जाति के होने के बावजूद राघवेंद्र मयूर को आगे बढ़ने नही देना चाहता। मयुर , श्रुति और पूजा के चरित्र को बड़े अच्छे तरीके से बुना गया है और जब जब ये तीनों  परिदृश्य मे आते हैं, माहौल बदल जाता है, मेरी समझ मे लेखक जितने अच्छे तरीके से छात्र राजनीति पर लिख सकता है उतने अच्छे तरीके से प्रेम कहानी भी लिख सकता है। उपन्यास मे समय समय पर सस्पेंस उभरकर सामने आता है परंतु जल्दी लेखक को उसका क्लीयरीफिकेशन देने के लिए सामने आना पड़ता है। इसे शायद दूसरे तरीके से ही कहानी मे बताया जाता तो बेहतर होता।कहानी मे सबसे बड़ा झोल अरुण गुप्ता का कैरेक्टर है, हालांकि वही यह कहानी कह रहा है पर क्यों? वह मयुर के बेस्ट फ्रेंड मे शामिल होने के बावजूद बिना कोई वजनदार तर्क के उसके साथ विश्वासघात करता रहता है।दुष्यंत का कैरेक्टर बेहतरीन और सहनायक  के रुप मे दोस्ती की मिसाल है जो हमेशा मयूर के लिए जी जान लगा देता है ।अंततः वह भी राजनीतिक षडयंत्रों का शिकार हो जाता है परंतु उसकी कमी या कहें हत्या की गिल्ट फीलिंग को मयूर सहन नही कर पाता और गुमनामी मे खो जाता है। यह एक बड़ी सीख है कि अंधाधुंध पाने के जद्दोजहद मे इंसान बहुत सारी कुर्बानियां देता है। उपन्यास मे पुलिस का वही पुराना ग्रे कैरेक्टर सामने है जो सता के इशारों पर नाचती है। मीडिया से सबकी फटती है और मयूर के आगे बढ़ने मे उसकी बुद्धिमत्ता के साथ साथ पत्रकार के भाई होने का भी रोल है। कुल मिलाकर छात्र राजनीति को समझने के लिए यह एक बेहतरीन किताब है। किताब पठनीय है। यह उपन्यास लेखक की पहली कृति है जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसका मूल्य 199 रुपया है।

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