आस्था और विज्ञान

आस्था एवं विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नही है बल्कि एक क्रम मे हैं।दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है वहीं से आस्था और विश्वास प्रारंभ हो जाता है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि जैसे जैसे विज्ञान का विकास होता जा रहा है आस्था का दायरा सिमटता जा रहा है। इसकी तुलना ग्लेशियर से निकल रहे हिमनद और नदी के अविरल पानी से कर सकते हैं। विज्ञान का जन्म भी आस्था से होता है बस उसमे तर्क और कार्य कारण सिद्धांत लागू होता जाता है जैसे ज्यों ज्यों गर्मी बढ़ती जाती है तो हिमनद पिघलते हुए सिमटता जाता है और नदी की लंबाई बढ़ती जाती है वैसे ही विज्ञान अपने खोज के माध्यम से आस्था की वस्तुओं को तार्किक ढंग खोज करते हुए आगे बढ़ता जाता है। विज्ञान बनाम आस्था काफी समय से बहस का बिंदु बना हुआ है। हाल के विज्ञान कांग्रेस मे महाभारत और रामायण की घटनाओं को विज्ञान से जोड़ते हुए व्याख्या करने पर बहस तीव्र हो गई है। गांधारी के सौ पुत्रों को टेस्ट ट्युब संतति कहने और आग्नेयास्त्रों को मिसाइलों से तुलना करने पर वैज्ञानिकों / तर्कशास्त्रियों द्वारा आलोचना की जा रही है। यह सत्य प्रतीत होता है कि इस कथन का कोई वैज्ञानिक  आधार नही है परंतु यह भी विचारणीय है कि चाहे उनका लेखन काल जो भी रहा हो, लेखकों मे इसकी सोच तो थी। फतांसी कहानियों का भी कोई न कोई आधार अवश्य होता है। विज्ञान की सीमा जहाँ समाप्त हो जाती है वहीं आस्था और विश्वास का क्षेत्र प्रारंभ हो जाता है। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सर्जन भी आपरेशन थियेटर मे जाने समय यही कहता है, मै अपना हंड्रेड परसेंट लगाऊंगा आगे ईश्वर की मर्जी!" यानि लाख शोधों के बावजूद शतप्रतिशत रिजल्ट के लिए कोई श्योर नही है। महान वैज्ञानिकों ने भी अपनी खोज और आविष्कार के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया । कहने का तात्पर्य यह है कि बिना आस्था के विज्ञान को भी बढने का रास्ता नही है। खोज या आविष्कार का आधार सोच या परिकल्पना होती है जो कहीं न कहीं से निकलती है । हम अपनी खोज/शोध  को आगे बढाते है न कि पैदा करते हैं।विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है कि तत्व बनते नही और मरते नही बल्कि स्वरूप परिवर्तन करते हैं तो पहले भी वो रहा होगा और आगे भी आयेगा।
मेरा तात्पर्य कहीं से भी यह कहना नही है कि पुष्पक विमान, आग्नेयास्त्र,मनुष्य मे स्वयं उड़ने की शक्ति ,एलियन्स, अंग प्रत्यारोपण, स्टेम सेल तकनीक या टेस्ट ट्युब संतान पौराणिक काल मे थे, जबतक विज्ञान उसे मान न ले पर सोच तो थी, परिकल्पनाओं मे तो ये बातें थी। साहित्य समाज का आइना होती हैं इसी आधार पर इन्हें तात्कालिक समाज मे विद्यमान माना जा सकता है। विज्ञान कांग्रेस मे वैज्ञानिकों द्वारा कही गई बातों की आलोचना हो रही है कि इन्हें मिथक या परिकल्पनाओं को इस मंच से नही बोलना चाहिए था। आलोचक मानतीं हैं कि आस्था मे ज्ञानसम्मत क्रम नही होता और वह फतांसी को भी सत्य मान लेते हैं लेकिन विज्ञ सिर्फ अपने तर्कों को ही सत्य मानता है जो कि प्रमाणित हो चुका है। जिस " गॉड पार्टिकल" को  कल तक  विज्ञान आस्था या परिकल्पना मान रहा था , उसे अब अपनी खोज मान रहा है तो आज से बीस साल पहले " गॉड पार्टिकल" नही था? था तो उस समय भी बस उस समय उसे सिर्फ परिकल्पना माना गया उसी तरह जबतक पौराणिक मिथकों को विज्ञान असत्य प्रमाणित न कर ले, उसे सिरे से नकारना उचित नही है।

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