अक्टूबर जंक्शन

आज का पाठक वर्ग मुखर हो गया है, कुछ भी पढते हुए उनका जी अकुलाने लगता है , जोश आ जाता है कि मै भी कुछ लिख डालूँ। वो चाहे समीक्षा ही क्यों न हो! अब देखिए !" अक्टूबर जंक्शन" को जनवरी मे पढा तो सोचने लगा आखिर अक्टूबर मे ही क्या रखा था? इसका नाम "जनवरी जंक्शन "भी रखा जा सकता था। लेकिन लेखक ने शायद शुरुआत करने की तिथि 10.10.10  को अच्छा मानकर अक्टूबर रखा। फिर अक्टूबर का मौसम सर्दियों की शुरुआत होती है जिसमे बनारस, मुक्तेश्वर, मुंबई, दिल्ली, लखनऊ सभी स्थानों का मौसम भी समान होता है।  हाल के वर्षों मे कहानीकारों मे बनारस को लेकर काफी जिज्ञासा और आकर्षण बढा है। "बनारस शृंखला" का इसे अगला उपन्यास कह सकते हैं पर इसमे सिर्फ बनिरस के घाट, नौका विहार, साधू और मणिकर्णिका ही है।यह उपन्यास एक प्रयोगात्मक है साल को दिनों के समान देखने की। पाठक दस सालों की कहानी को बस यूं खत्म करता है जैसे दस दिन की बात हो। कहानियां अक्सर भूत और वर्तमान की हुआ करती है पर " अक्टूबर जंक्शन" ऐसा तिथि गत प्लेटफार्म है जिसपर चलने वाली ट्रेन हमे भूतकाल से वर्तमान होते हुए भविष्य तक ले जाती है 10 अक्टूबर बीस तक! घोस्ट राइटिंग एक आम समस्या बनती जा रही है जिसके दुष्चक्र मे फंस कर नया लेखक कभी उभर नही पाता । यह उसीप्रकार है जैसे बड़े बड़े स्टंट करनेवाले स्टंटमैन और डमी कलाकार कभी अपने चेहरे को पब्लिक के सामने ला नही पाते और सारा क्रेडिट बड़े नायक ले जाते हैं। उपन्यास का नायक सुदीप सेल्फमेड उद्यमी है जिसने बिजनेस की बुलंदियों को छुआ है पर अंदर से अकेला और विचलित है। वह जल्द से जल्द रिटायर होना चाहता है ताकि जिंदगी जी सके। संसार की निस्सारता का अहसास मणिकर्णिका घाट पर देखकर वह विचलित हो जाता है, उसे बनारस के घाट और साधु का फक्कड़पन रोमांचित करता है। संसार मे पैसा ही सबकुछ नही है, इससे खुशियाँ नही खरीदी जा सकती, इसबात को नायक के माध्यम से लेखक जतला देता है। नायिका चित्रा लेखक बनने की लालसा लिए इधर उधर भटक रही है। इत्तफाकन सुदीप से बनारस मे मुलाकात और फिर आनेवाले हरेक साल मे उसी डेट को उतनी ही बेतकल्लुफी से मिलना, सुदीप के बुरे समय मे मानसिक सहारा देना, कहने को प्यार नही था पर प्यार ही तो था! एक डिफरेंट लवस्टोरी कह सकते हैं जिसमे गिला शिकवा, ख्वाहिशें, जज्बात, अपेक्षाएं नही के बराबर है ,हालांकि यहाँ पर दो तीन सालों तक उस एक दिन साथ कमरे मे सोने के बावजूद शारीरिक संबंध न होना खटकता जरूर है पर शायद उनका प्यार शारीरिक संबंधों से परे था, "शेखर एक जीवनी" के नायक नायिकाओं की तरह!हालांकि एक जगह चित्रा गिगोलो की सेवा लेती दिखती है और सुदीप अपने गर्लफ्रैंड के साथ। एक चीज और खटकती है कि दो  दस अक्टूबरों  के मध्य उनके एक दूसरे को याद न करना, फोन भी न करना, किताब पर लिखे डेट के जरिए याद रखना, ये कुछ ज्यादा ही सुपरनेचुरल प्यार की तरह दिखता है। लेखक स्वयं स्वीकार करता है कि सुदीप को तो अंत मे मरना ही था क्योंकि इससे उपन्यास का थीम" जीवन की निस्सारता" निखरकर सामने आती पर बड़ी चालाकी से लेखक " मौत से पहले भीड़तंत्र का कारनामा भी दिखला दिया जो आजकल "हाट टापिक" है।कहानी मे नायक नायिकाओं को कई स्थानों पर विचरण कराने से कहानी मे सौंदर्य वर्णन का स्कोप आ जाता है जैसे नीम करोड़ी बाबा, मुक्तेश्वर, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई मे कहानी के सहारे पाठकों को घुमाने मे लेखक का पात्रों के विश्लेषण के साथ साथ स्थानों क वर्णन की खासियत सामने आती है। जैसे भगवंत अनमोल  ने " जिंदगी फिफ्टी फिफ्टी " मे पात्रों के सहारे पाठको को बहुत स्थानों के दर्शन कराया था। कुल मिलाकर दिव्य प्रकाश दूबे का दूसरा उपन्यास" अक्टूबर जंक्शन" मुसाफिर कैफे की तरह रोचक और बढिया है।

Comments

Popular posts from this blog

कोटा- सुसाइड फैक्टरी

पुस्तक समीक्षा - आहिल

कम गेंहूं खरीद से उपजे सवाल