चौरासी----- समीक्षा

यूं तो " चौरासी" को काफी पहले पढ़ लिया था लेकिन समीक्षा लिखने के उहापोह मे कई दिन बीत गये। " त्रासदी यह है कि प्रेम हर मजहब का एक अंग है जबकि इसको खुद ही एक मजहब होना चाहिए था" उपन्यास का थीम लाइन है। लेफ्टिनेंट जनरल के एस बराड के " आपरेशन ब्लू स्टार का सच" पढने के बाद सत्या व्यास की "  चौरासी "को पढ़ना, मानो कंटीन्यूटी मे पढ़ रहे हों। बहुत सारे सवालों के जबाव पहले ही मिल चुका था। पर यह उपन्यास है और पहलेवाला इतिहास! इसका नायक" ऋषि "गदर फिल्म के नायक के सदृश बनते -बनते रह जाता है जिसमे इतना साहस नही है कि सन्नी देवल की तरह हैंडपंप उखाड़कर और सबके सामने से छीनकर  ट्रेन से अपनी प्रेमिका मनु को मोगा पंजाब से वापस ले आये,तो उसने चोरी से  गंगा सागर से भगा लिया! कहानी बहुत हद  तक मणिरत्नम की" बाम्बे"जो मुंबई दंगों के साये मे पनपे हिंदू - मुस्लिम नायक नायिका के मध्य प्रेम के समान ही है। गदर, बांबे और चौरासी तीनों मे नायक हिंदू ही है, बस चरित्र थोड़ा थोड़ा अलग है। छाबड़ा साहब  नायिका के टिपिकल बाप के रोल मे है, लेकिन गदर के अमरीश पुरी की तरह खुंखार विलेन नही और ऋषि " शोले" के एंग्री यंग मैन अमिताभ की तरह  ही है जो  मनु को देखते ही अपने " शरीफाना" खोल(आवरण) मे छिप जाता है जैसे वो जया भादुड़ी को देखते ही हो जाते थे। बाकी दंगा- फसाद तो प्रायोजित था जिसके पीछे बदला लेना कम लूटपाट ज्यादा थी। पंजाबी जैसी मेहनतकश और लगनशील कौम द्वारा बोकारो मे आकर धंधा पानी जमा लेना लोकल निठल्लो को भला कैसे गंवारा होता, उन्हें बस मौके की तलाश थी , बाकी दंगो की तरह इसका भी कैरेक्टर वर्चस्ववादी और अर्थवादी था। लेखक ने इसे अच्छे से दिखाया है। लेखक के अन्य कृतियों से तुलना करें तो " बनारस टाकीज" ने जो कीर्तिमान और मानक स्थापित कर दिए हैं, उसे फिर से छूने या पार जाने के लिए उन्हें कुछ विशिष्ट करना होगा, ऐसा मेरा मानना है। वैसे हम जब किसी सुपरहिट स्टार के फिल्म देखते हैं तो अपेक्षायें अपने आप ही हाई होती है। कहानी वास्तविक घटनाक्रम के इर्दगिर्द है और दस्तावेज युक्त है जिसके साथ प्रेम कहानी बुनना कठिन कार्य है, जिसका रिस्क लेखक ने लिया है और बहुत हद तक सफल भी हुए हैं। अध्यायों का नाम बड़े सुंदर तरीके से बुना गया है और यह चैप्टर के भावों को सुंदर तरीके से अभिव्यक्त भी करता है।दंगे का मार्मिक और कारुणिक वर्णन उपन्यास को ऐतिहासिक बनाती है। वन लाइनर सटीक हैं और असर करते हैं पर दंगो पर फोकस ने प्रेम को उभरने न दिया जिस तरह से" बांबे" मे मनीषा और अरविंद का उभर आया था। उपन्यास पढने लायक है लेकिन मन मे " बनारस टाकीज या दिल्ली दरबार लेकर न पढें, तो अच्छा लगेगा।

Comments

  1. अच्छा रिव्यू लिखा है आपने। कृपया अर्थला नॉवेल का भी रिव्यु लिखें। अर्थला जैसी किताबों को आप जैसे लोगों की समीक्षा अवश्य मिलनी चाहिए।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

कोटा- सुसाइड फैक्टरी

पुस्तक समीक्षा - आहिल

कम गेंहूं खरीद से उपजे सवाल