ईरान इजरायल युद्ध का वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
आखिरकार ईरान-इजरायल युद्ध में अमेरिका को खुलकर सामने आना पड़ा ,लेकिन उसके द्वारा प्रयुक्त अमेरिकी बंकर बस्टर बमों ने इरानी परमाणु ठिकानों को कितना नुक्सान पहुंचाया ,यह तो भविष्य ही बताएगा। इजरायल ने युद्ध शुरू होने से पहले ही कहा था कि उसका उद्देश्य ईरानी परमाणु कार्यक्रम को नेस्तनाबूद करना तथा वहां सत्ता परिवर्तन कराना है। सत्ता परिवर्तन या प्रमुख धार्मिक नेता के बारे में तो इजरायल सफल नहीं हो पाया, उल्टे जिसतरह ईरान ने प्रतिक्रिया स्वरूप इजरायल के शहरों पर बमबारी की और मिसाइल दागे , इससे स्पष्ट हो गया कि ईरान अब पहले जैसा देश नहीं रह गया है और दूसरे कि इजरायल का एयर डिफेंस डोम अब सुरक्षित नहीं है। इस युद्ध का वैश्विक असर अमेरिका, इजरायल, पश्चिम एशिया, रुस ,चीन ,पाकिस्तान सहित भारत पर भी पड़ा है।
वस्तुत ईरान प्रतिदिन दो मिलियन बैरल तेल और परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात करता है, जो विश्व के कुल तेल आपूर्ति का लगभग 2 प्रतिशत है। पहले ही अमेरिका ईरान पर व्यापारिक प्रतिबंध के तहत तेल आयात पर रोक लगा चुका है।इरान युद्ध के समय अमेरिका, यूरोप और इजरायल के समर्थकों पर खाड़ी देशों से सामूहिक तेल प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर सकता है जैसा कि 1973 के योम किप्पुर युद्ध के समय लगाया गया था। इतना ही उसके प्राक्सी मिलीशिया मसलन हमास और हिजबुल्ला आदि खाड़ी देशों में अमेरिकी और इजरायली सैन्य अड्डे पर हमला कर सकते हैं। इराक जो विश्व को प्रतिदिन 4 मिलियन बैरल से अधिक तेल की आपूर्ति करता है, इन हमलों का निशाना आसानी से बन सकता है। ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगाने की जिद का असर कम से कम सऊदी अरब और यूएई की महत्वाकांक्षाओं पर भी पड़ेगा क्योंकि इस तरह से यह क्षेत्र पूरी तरह से इजरायल के रहमो-करम पर रह जाएगा,, क्योंकि यह एकमात्र परमाणु-सक्षम देश है, जो अमेरिका की इजरायली सैन्य श्रेष्ठता को बनाए रखने की नीति के अनुकूल है। अमेरिका द्वारा खाड़ी देशों में रूसी संपत्तियों को जब्त करने, टैरिफ और आर्थिक नीतियों ने मध्य पूर्व में पश्चिमी निवेशों को लेकर एक अशांति उत्पन्न कर दी है। भले ही उपरी तौर पर यहां लोग व्यापारिक हित में अमेरिका और पश्चिमी देशों का सहयोग कर रहे हो, खाड़ी के अधिकांश देश फिलिस्तीनी समर्थक और अमेरिका विरोधी है।
इस युद्ध में इजरायल का उद्देश्य ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकना था या उस पर निर्णायक चोट करनी थी जिसमें वो सफल भी हुए हैं लेकिन इसने सिर्फ आधारिक संरचना नष्ट कर दिया है,वैज्ञानिकों को मार दिया है लेकिन उनका परमाणु ज्ञान तो नहीं मिटा सके हैं जो ईरानी शासन ने कई वर्षों में जमा किया है। इतना ही नहीं अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या हवाई हमलों ने उस नौ सौ पाउंड यूरेनियम को नष्ट कर दिया है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, ईरान ने पहले ही हथियार-ग्रेड की गुणवत्ता के करीब समृद्ध कर लिया था। इसके अतिरिक्त इस युद्ध में ईरान पर अमेरिका इतना निर्णायक दबाव नहीं बना पाया है कि उसे बिना शर्त वार्ता के टेबल पर आने के लिए मजबूर कर दे। यहां तक कि परमाणु ठिकानों पर हमले के जबाव में उसने अमेरिकी अड्डों पर भी बमबारी की ही साथ में युद्धविराम की घोषणा के बाद भी इजरायल पर मिसाइल दागे।
यह सच है कि इजरायल ने अपने से पचहत्तर गुना बड़े देश ईरान जिसकी जनसंख्या उससे नौ गुना अधिक है, पर मिसाइल, ड्रोन से बमबारी कर उसके परमाणु कार्यक्रम को पीछे धकेल कर एवं अमेरिका को सीधे लड़ाई में लाकर उसने दशकों पुराना लक्ष्य हासिल कर लिया है। विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि ईरान के साथ उसके इस युद्ध का अध्ययन भविष्य में सैन्य अकादमियों में किया जाएगा और इजरायल ने इस युद्ध से "खुद को दुनिया की प्रमुख शक्तियों की पहली पंक्ति में शामिल कर लिया है। इतना ही नहीं अमेरिका और अन्य सरकारों द्वारा आतंकवादी समूहों के रूप में नामित हमास और हिजबुल्लाह के इजरायल द्वारा सफाए से इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन भी बदल गया है। असल में तकनीकी और सैन्य रूप से शक्तिशाली इजरायल, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात से ही मध्य पूर्व में पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका और ब्रिटेन की एक सुरक्षा चौकी के रूप में काम करता है।
ऐतिहासिक रूप से अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश इजरायल के साथ गठबंधन या सहानुभूति रखते हैं, जबकि चीन और रूस के नेतृत्व में शेष दुनिया ईरान के साथ काफी हद तक सहानुभूति रखेगी,विशेषकर गाजा के फिलिस्तीनियों के लिए ईरान के समर्थन के कारण। पश्चिमी देशों के भीतर भी, फिलिस्तीनी मुद्दे के लिए राजनीतिक समर्थन मजबूत होने की संभावना है। किसी भी पश्चिमी देश ने यहां तक कि नाटो ने भी अमेरिका द्वारा ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमले का समर्थन नहीं किया। यदि अमेरिका पूर्णरूपेण युद्ध में उतरता तो संभव था कि पश्चिमी देशों का उसे सहयोग नहीं मिलता। यहां तक कि खुद अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प को इसके लिए विरोध का सामना करना पड़ा। इस युद्ध ने भारत, जॉर्डन, मिस्र और तुर्की जैसे देशों को इस राजनीतिक और आर्थिक विभाजन के दोनों तरफ अपने हितों को संतुलित करने के लिए कुछ चतुर कूटनीतिक रास्तों पर चलने के लिए मजबूर कर दिया है। विश्लेषकों का तो यह भी कहना है कि रूस ने ईरान अमेरिकी हमलों की सिर्फ निंदा की, लेकिन ईरान की कोई प्रत्यक्ष सैन्य सहायता उपलब्ध नहीं करवाई जबकि इरानी विदेशमंत्री इस संकट की घड़ी में राष्ट्रपति पुतिन से मिले भी थे। यह पश्चिम एशिया में रूस के कम होते प्रभाव को दर्शाता है, जहां उसने पहले ही एक महत्वपूर्ण सहयोगी खो दिया है और एक नाजुक कूटनीतिक संतुलन की तलाश कर रहा है।
सैन्य प्रभाव के रूप में हवा से ज़मीन पर हमला करने, सटीक निर्देशित युद्ध सामग्री खास तौर पर बैलिस्टिक और हाइपरसोनिक मिसाइलों, साथ ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस-संचालित ड्रोन और एंटी-ड्रोन सिस्टम के सैन्य लाभ को इस युद्ध ने एक बार फिर से प्रमाणित कर दिया है। जिसतरह से युक्रेन ने रुस के अंदर लगभग पांच हजार किमी घुसकर अपने ड्रोनों से हमला किया ,उसी प्रकार इजरायल ने ईरान में किया। इजरायली एयर डिफेंस सिस्टम पूरी तरह से फेल रहा और ईरानी मिसाइलों और ड्रोनों ने इजरायल में जमकर तबाही मचाई। इसका दुष्प्रभाव यह पड़ेगा कि इसने मध्य पूर्व के आतंकवादी समूहों या पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान जैसे देशों में आतंकवादी समूहों द्वारा इसका अनुसरण किया जा सकता है।
राजनीतिक रूप से देखें तो भारत इजरायल और ईरान के बीच टकराव में कहीं फंस गया है क्योंकि दोनों के साथ उसके महत्वपूर्ण रणनीतिक हित हैं। भारत के लिए इजरायल महत्वपूर्ण रक्षा आपूर्तिकर्ता है, जबकि ईरान अपने बंदर अब्बास बंदरगाह के माध्यम से भारत को मध्य एशिया और अफगानिस्तान में रणनीतिक प्रवेश द्वार प्रदान करता है। हाल के भारत पाकिस्तान युद्ध में इजरायल ने भारत का खुलकर समर्थन किया था परंतु भारत ऐसा नहीं कर सका क्योंकि दूसरा पक्ष भी उसका मित्र देश था। इतना ही नहीं रूस और अमेरिका के साथ भी उसके प्रतिस्पर्धी हित हैं, जो इस संघर्ष में विपरीत पक्षों पर खड़े थे। आर्थिक रूप से, भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का लगभग अस्सी प्रतिशत आयात करता है, जो खाड़ी देशों से प्रभावित हैं। भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और रणनीतिक स्वायत्तता में अटूट विश्वास है लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप मौजूदा व्यवहार को देखते हुए लगता है कि अमेरिका के साथ भारत के रणनीतिक संबंध लगभग खोखले हो चुके हैं। चीन के साथ भारत के रिश्ते वैसे ही ठंडे पड़े हुए हैं क्योंकि वह चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के साथ खड़ा है। परंपरागत मित्र रूस इस समय खुद को अलग-थलग महसूस कर रहा है, क्योंकि भारत स्कैंडिनेविया से लेकर भूमध्य सागर तक यूरोप के रूसोफोबिक देशों के साथ दोस्ती की पींगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि अमेरिका का मुख्य रोष यही है कि भारत रुस से तेल और रक्षा सामग्री आयात कर रहा है जबकि अमेरिका स्वयं भारत को रक्षा हथियार बेचना चाहता है। इसके साथ ही ईरान भी हाल के युद्ध में भारत का समर्थन न पाने और भारतीय पश्चिम एशियाई रणनीति में इजरायल को दिए गए महत्व से खुश नहीं हो सकता है। हालांकि ईरान पहले विश्व राजनीति में भारत का काफी महत्वपूर्ण समर्थन किया था। तीस साल पहले जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर पाकिस्तान और ईरान के बीच एक कूटनीतिक युद्ध हुआ था, जब ईरान ने यूएनएचआरसी में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित इस्लामिक सहयोग संगठन के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया था, जिसमें कश्मीर में भारत के कथित मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा की गई थी। इसलिए मध्य पूर्व के संबंध में भारत को एक ठोस, संतुलित और चतुर रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
जहाँ तक पाकिस्तान का प्रश्न है तो इस युद्ध में उसने महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर लिया है। इरान इजरायल युद्ध में अमेरिकी हमले के बाद पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस और चीन के साथ मिलकर तत्काल और बिना शर्त युद्ध विराम की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया। यद्यपि इस मसौदा प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से अमेरिका या इजरायल का नाम नहीं लिया गया, लेकिन इसमें ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमलों की निंदा की गई। जबकि ईरान के साथ उसके संबंध और परमाणु शक्ति संपन्न देश होने को ध्यान में रखकर ही डोनाल्ड ट्रम्प ने उसका समर्थन प्राप्त करने के लिए सैन्य प्रमुख मुनीर को लंच पर बुलाया था। इसके बावजूद ईरान के समर्थन में यह पाकिस्तान द्वारा रणनीतिक स्वायत्तता का एक आश्चर्यजनक रूप से मुखर प्रदर्शन है। ईरान के समर्थन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस और चीन के साथ मिलकर काम करना न केवल एक साहसिक सोच का प्रदर्शन है, बल्कि उभरते बहु-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में खुद को स्थापित करने की दिशा में पाकिस्तान की परिपक्वता का संकेत भी है। जाहिर है कि यह भारतीय हित में नहीं है।
इस प्रकार स्पष्ट है ईरान -ईजरायल युद्ध भले ही युद्धविराम की स्थिति में है लेकिन यह अभी समाप्त नहीं हुआ है। ना तो ईरान अपनी सुरक्षा के लिए अपनु परमाणु कार्यक्रमों को इतनी आसानी से रोक देगा और ना ही इजरायल फिलिस्तीन सहित ईरान या अन्य किसी मध्य पूर्व के देशों को इतना शक्तिशाली बनने का अवसर देना चाहेगा जो उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा हो। लेकिन यह भी सच है कि जब तक इज़राइल और अमेरिका मध्य पूर्व में एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए सहमत नहीं हो जाते हैं, तब तक मध्य पूर्व में अस्थिरता और अशांति जारी रहने की संभावना बरकरार है।
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