भारत -पाक संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में भारतीय विदेश नीति

संकट के समय ही किसी व्यक्ति या देश की नीतियों और कार्यों की परीक्षा होती है । स्वाभाविक रूप से पहलगाम आतंकवादी घटना के बाद भारत-पाक संघर्ष के दौरान भारतीय विदेश नीति की भी परीक्षा हुई और जिस तरह अन्य  देशों का इसके प्रति रुख रहा, उससे आलोचकों द्वारा भारतीय विदेश नीति पर भी सवाल उठाए गए। ऐसी स्थिति  में इसकी गहन समीक्षा आवश्यक प्रतीत  होता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा अचानक भारत-पाक युद्ध विराम की घोषणा करने तथा उसके शब्दीय तेवर ने सवालों को तीखा कर दिया। लेकिन ट्रंप के द्वारा बार-बार कहने के बावजूद भी भारत द्वारा अपने आधिकारिक वक्तव्य में उनका नाम ना लिए जाने से और उन्हें  युद्ध विराम का क्रेडिट न मिलने के कारण उनमें एक तरह से खिसियाहट बढ़ गई है। उन्होंने यह खिसियाहट एपल कंपनी के टिम कुक पर निकाली और उसे मना कर दिया कि वो भारत में अब आइफोन का कारखाना नहीं लगायेंगे। संभव है,  इसके पीछे उनका नेशन फर्स्ट और हालिया टैरिफ वार का नजरिया भी हो लेकिन वो एक तरह से भारत को इग्नोर कर उसे उसकी हैसियत से कम दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। 

         नेहरू युग में भारत ने अपनी विदेश नीति में अपने को गुटनिरपेक्ष देश के रूप में रखा क्योंकि तत्कालीन शीत युद्ध के दौर में विश्व दो ध्रुवों में बंटा हुआ था। सोवियत रूस का विघटन के बाद जब विश्व एक ध्रुवीय बनने की दिशा में अग्रसर  हुआ तो यह स्वाभाविक था कि नॉन एलाइनमेंट का बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया था। वर्तमान सरकार ने विदेश नीति को गुटनिरपेक्ष (नान एलांयनमेंट ) से बहु गठबंधन (मल्टी एलाइनमेंट) में परिवर्तित कर दिया क्योंकि आज  विश्व में आप अलग थलग होकर नहीं रह सकते और नहीं आगे बढ़ सकते हैं। इस तरह भारत आज जहाँ एक ओर  चीन या रूस के नेतृत्व वाले ब्रिक्स  और शंघाई सहयोग संगठन (एस सी ओ) का सदस्य है तो दूसरी ओर अमेरिका के नेतृत्व वाले चतुर्भुज सुरक्षा संवाद (क्वाड) में जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ शामिल है।भारत एक तरफ रुस के साथ इंटरनेशनल नार्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कारिडोर के सहारे रुस , ईरान और मध्य एशियाई गणराज्ज्यो को जुड़ रहा है तो ब्रिक्स के माध्यम से अमेरिका और युरोपीय देशों को चुनौती दे रहा है। एक तरफ एससीओ को नाटो को काउंटर करने के लिए बनाया गया है तो दूसरी तरफ भारत जी 20 देशों के साथ भी तालमेल बनाए हुआ है,परंतु यह सच है कि हम इस समय अमेरिका के प्रति ज्यादा झुकाव महसूस करने लगे हैं, जिसका असर हमारे रुस के साथ पारंपरिक संबंध पर पड़ा है। इन सबके साथ संबंध बनाये रखने के बावजूद हालिया भारत-पाक  संघर्ष के दौर में भारत के साथ इजरायल को छोड़कर कोई भी देश खुलकर सामने नहीं आया, जबकि पाकिस्तान के साथ तुर्किये, अजरबेजान और चीन खुलकर समर्थन में आ गया। हालांकि भारत को अमेरिका और रुस बहुत आशा थी लेकिन रुस ने मौन साधे रखा और अमेरिका की भूमिका भारतीय हित में नहीं रही , जिसने एक तो पाकिस्तान को भारत के साथ बराबरी में रखकर देखा, दूसरे उसने कश्मीर के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय पटल पर उभारा, जो भारतीय नीति के विपरीत है। इतना नहीं उसने बात और पाकिस्तान को एक समान दर्जा देने की कोशिश की। हालांकि भारत ने अमेरिकी हस्तक्षेप को नजरंदाज करते हुए उसे ज्यादा महत्व नहीं दिया और पाकिस्तान , आतंकवाद और कश्मीर पर अपने रवैये को कठोरता पूर्वक विश्व के सामने रखा। यदि भारत की स्वतंत्र छवि को मजबूत करता है।

     यह महत्वपूर्ण है कि किसी दूसरे संप्रभु देश में वहां  के आतंकवादी ठिकानों पर हमला करने के बाद भी विश्व के किसी भी देश ने भारत का खुलकर विरोध नहीं किया और ना ही खुलकर आलोचना की , इसे भारतीय विदेश नीति की एक जीत के रूप में देखा जाना चाहिए। विश्व  के सभी देश आतंकवाद से पीड़ित है और जिस तरह  पाकिस्तान  आतंकवादियों  को प्रश्रय देता है, यह उसके खिलाफ गया। भारत कभी भी  किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू (क्लाइंट स्टेट) नहीं रहा है और चाहे किसी दूसरे का संघर्ष हो या अपना संघर्ष, भारत अपनी स्वायत्तता से समझौता नहीं करता है। आज भारत विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था है, उसे अब कोई निर्देशित नहीं कर सकता और नजरंदाज भी नहीं कर सकता है। स्वाभाविक है कि जब आप एक महाशक्ति के रूप में उभर रहे होते हैं तो आपके दोस्त भी आपके प्रति उदासीनता दिखाने लगते हैं कि इसे हमारे सहयोग की आवश्यकता नहीं है, अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए यह सक्षम है। जब भारत पाक युद्ध शुरू हुआ तो एक आशंका थी कि मुस्लिम देशों का क्या रुख होगा, तालिबान और आइएसआइएस क्या करेगा? परंतु जिसतरह मुस्लिम देश इसके प्रति तटस्थ रहे, वह सुखद है और यह भारतीय विदेश नीति की सफलता है। पहलगाम नरसंहार पर लगभग सभी मुस्लिम राष्ट्रों ने भारत के प्रति सद्भाव दिखाया था। अब तो तालिबानी विदेश मंत्री ने भी भारतीय विदेश मंत्री से बात की है।


यहां पर यह तथ्य विचारणीय अवश्य है कि तुर्की ने आखिरकार क्यों पाकिस्तान का खुलकर  समर्थन किया। वस्तुत तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान के लिए जब तुर्की  के भूकंप  के समय भारत ने राहत सामग्री भेजी थी तो भारत दोस्त बन गया था परंतु एक इस्लामिक  राष्ट्र होने के कारण पाकिस्तान उसका भाई है! स्वाभाविक रूप से संघर्ष की स्थिति में वह अपने  धार्मिक भाई का साथ देगा। दूसरे अपने देश में  एर्दोगान की छवि एक इस्लामिक नेता की है , तो उसे बरकरार रखने और आगे के चुनाव जीतने के लिए आवश्यक है कि वह एक मुस्लिम देश का साथ दे। तीसरे एर्दोगान भी  विश्व नेता बनने के फिराक में है और  रुस -युक्रेन युद्ध में बढ़ चढ़कर समझौता कराने में लगा है । ऐसे  में भारत पाक युद्ध में भी उसका कूदना स्वाभाविक है। चौथे तुर्की का भारत के साथ  व्यापार घाटे का सौदा है अर्थात वह भारत से आयात ज्यादा करता है निर्यात कम। लेकिन पाकिस्तान में उसका व्यापार अधिशेष ज्यादा है। पांचवां तुर्की विश्व के हथियार सप्लायर्स देशों में आगे बढ़ना चाहता है। पिछले पांच सालों में इस्लाम का सहारा लेकर इस्लामिक देशों को खूब हथियार बेच रहा है और स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान उसका एक बहुत बड़ा खरीदार है। 

    इसी तरह चीन द्वारा पाकिस्तान का समर्थन किया जाना आशानुरूप था, क्योंकि पाकिस्तान चीन का पिछलग्गू  स्टेट या क्लाइंट स्टेट है अर्थात उनके हथियारों को खरीदने वाला है। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान में चीन ने लगभग 70 बिलियन डालर का निवेश किया है और लगभग 26 बिलियन डालर का कर्ज दे रखा है। जहां तक अमेरिका की बात है तो अमेरिका पाकिस्तान के चीन के पाले में जाने से पहले पाकिस्तान का बहुत समर्थन और सहयोग करता था । हाल के वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था के निरंतर बढ़ते रहने ओर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत बढ़ती स्वीकार्यता के दृष्टिगत अमेरिकी भू राजनीति भारत को रोकने के उद्देश्य से चल रही है। दूसरे भारत ने भी क्वाड का सदस्य होते हुए भी नाटो के समर्थन में रुस पर प्रतिबंध नहीं लगाया और संयुक्त राष्ट्र संघ में हमेशा रुस का साथ दिया है। इसके अतिरिक्त  कुछ मीडिया रिपोर्टों के अपुष्ट जानकारी के अनुसार हाल के दिनों में ट्रंप के बढ़ते पाकिस्तानी प्रेम के पीछे पाकिस्तान के शीर्ष नेताओं के साथ एक अमेरिकी कंपनी का क्रिप्टो करेंसी समझौता भी है जिसमें कहा जाता है डोनाल्ड ट्रम्प के पारिवारिक सदस्य हैं। तीसरे जब ट्रंप की रुस -युक्रेन युद्ध और इजरायल -फिलिस्तीन युद्ध में दाल नहीं गली तो वह वह यहां बेवजह टांग अड़ाने आ गया। कहा जाता है कि कहीं कहीं न इसके पीछे ट्रंप की अपने इस आखिरी टर्म में नोबल शांति पुरस्कार पाने की चाहत काम कर रही है, जो खिसियाहट के रूप में भारत पर उमड़ रही है क्योंकि भारत ने उसके तथाकथित प्रयासों को महत्व नहीं दिया। हालांकि भारत-पाकिस्तान संघर्ष को लेकर अमेरिकी चैनल सीएनएन ने कहा कि भारत के पाकिस्तान के परमाणु ठिकाने किराना हिल्स पर हवाई हमले के बाद अमेरिका को बीच में आना पड़ा। अमेरिका को लगा कि भारत ने पाकिस्तान को इसतरह से दबोच लिया है कि कहीं  दोनों पक्ष परमाणु युद्ध में न फंसे जाये। पाकिस्तानी परमाणु बेस की क्षति के संबंध मे आस्ट्रेलियाई रक्षा विशेषज्ञ और पत्रकार टाम कूपर ने भी कहा है ।इधर भारत ने पाकिस्तान के साथ संघर्ष में अमेरिका की मध्यस्थता को सिरे से  खारिज कर दिया ‌ है। 

   हालांकि हाल के वर्षों में भारत की अमेरिका से क़रीबी बढ़ी है और अमेरिका को स्वाभाविक सहयोगी बताया गया है। वैश्विक  स्तर पर चीन से मिल रही चुनौती के दृष्टिगत अमेरिका भी भारत के साथ अच्छे संबंध रखना  चाहता है। लेकिन वास्तव वर्तमान अंतरराष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर विरोधाभासी एवं अवसरवादी है। भारत, पाकिस्तान, चीन, रुस , अमेरिका, तुर्की और मिडिल ईस्ट सब एक दूसरे से अपने हितों से जुड़े हुए हैं। यूक्रेन -रुस युद्ध, क्रीमिया पर रुस द्वारा आधिपत्य स्थापित करना, इजरायल द्वारा गाजापट्टी पर कब्जा, चीन -रुस गठबंधन, तुर्की की महात्वाकांक्षा, तालिबान की बढ़ती स्वीकृति, अरब देशों  की बढ़ती ताकत से पुराने विश्व व्यवस्था को चुनौती मिल रही है। अमेरिका, युरोपीयन  युनियन, चीन और रूस विश्व सत्ता को अपने पक्ष में करना चाहता है। ऐसे में तुर्की, सऊदी अरब, भारत, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ़्रीका का रुख़ मायने रखता है। भारत की विदेश नीति इन विरोधाभासों से अछूती नहीं रह सकती है। भारत की मल्टी- अलाइनमेंट विदेश नीति का तात्पर्य है कि वह अपने हितों के लिए सबके साथ है और जहाँ उसके हितों को चोट पहुँचाई जा रही है, उसके ख़िलाफ़ वह बोलने का साहस रखता है। इसके बावजूद इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि विश्व में रुस-चीन धूरी का बड़ी तेज़ी  से उभार हो रहा है तथा भारत का अपने पड़ोसी देशों के साथ अलगाव सार्क और आरईसीपी जैसे संगठनों में दिख रहा है। महाशक्ति बनने की दिशा में भारत को  अपने पड़ोसियों और रुस-चीन का साथ आवश्यक होगा। वस्तुत अमेरिका या किसी एक देश पर निर्भरता भारत को पिछलग्गू बना सकती है, एक महाशक्ति नहीं। यह भी देखना होगा कि भारत के पास खुद का  इतना बड़ा बाजार है  जिसमें इन महाशक्तियों के लिए बहुत बड़ा स्कोप है। इसका लाभ भारत को उठाना चाहिए।

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