बदलते गांव
गांवों का जिक्र आते ही एक सुकून भरे, शांत, सहज, सादगीपूर्ण वातावरण का दृश्य उभरकर सामने आता है जिसमें हरे-भरे खेत, हल जोतते किसान, मवेशियों के गले में बंधी घंटियों का आवाज, जाड़े में अलाव के चारों ओर बैठे गपियाते लोग,चौक चौराहों पर हुक्के की गुड़गुड़ में बतियाते बुजुर्गों के दृश्य हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि अब यह गांव बदल गया हैं। आधुनिक तकनीक और आधुनिक जीवन-शैली की चमक- धमक यहां दिखने लगी है। वस्तुत गांवों में दो तरह के बदलाव दिख रहे हैं । एक तरफ तो गरीबी, असमानता, पिछड़ापन कम हो रहा है दूसरी ओर गांव और ग्रामीणों का वह सिग्नेचर पहचान लुप्त हो रहा है, जिसके लिए वह जाना जाता रहा है। ग्रामीण भारत में परिवर्तन और किसानों के बदलते जीवन के संबंध विभिन्न शोधों से स्पष्ट है कि भारत के ग्रामीण परिवेश में सकारात्मक परिवर्तन हो रहा है। किसानों की आय बढ़ने से उनका जीवन स्तर सुधर रहा है। भारतीय स्टेट बैंक की एक रिसर्च के अनुसार सरकारी सहायता कार्यक्रमों के सकारात्मक प्रभावों और विकास कार्यों के कारण देश में गरीबी में कमी आई है, जिसका ज्यादा प्रभाव गांवों में पड़ा है। वित्तीय वर्ष 2011-12 में ग्रामीण गरीबी 25.7 प्रतिशत और शहरी गरीबी 13.7 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2023-24 में घटकर क्रमशः 4.86 प्रतिशत और 4.09 प्रतिशत रह गई है। वित्त वर्ष 2009-10 से 2023-24 के बीच गांवों में प्रत्येक माह प्रतिव्यक्ति उपभोक्ता खर्च 1,054 रुपये से बढ़कर 4,122 रुपये हो गया है। पिछले 14 वर्षों में आय बढ़ने से प्रत्येक माह प्रतिव्यक्ति उपभोक्ता खर्च लगभग चार गुना हो गया है। विश्व बैंक की गरीबी संबंधी रिपोर्ट-2024 के अनुसार भारत में अत्यधिक गरीबों की संख्या , जो वर्ष 1990 में 43.1 करोड़ थी, घटकर वर्ष 2021 में 16.74 करोड़ और 2024 में लगभग 12.9 करोड़ रह गई है। नीति आयोग के अनुसार भी देश में पिछले दस वर्षों में लगभग 25 करोड़ लोग गरीबी की परिधि से बाहर आए हैं। स्वाभाविक है कि गांव अब गरीब नहीं है।
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतर्गत सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लगभग 80 प्रतिशत लोगों को प्वाइंट आफ सेल मशीनों के द्वारा निःशुल्क खाद्यान्न वितरण किया जा रहा है। मनरेगा के अंतर्गत निरंतर ग्रामीण रोजगार में वृद्धि हुई है। डिजिटल इंडिया, शौचालय, स्वच्छ पेयजल और आयुष्मान भारत योजना, स्वच्छ ईंधन के लिए उज्ज्वला योजना, सभी घरों में बिजली के लिए सौभाग्य योजना आदि से भी देश में गरीबी में कमी आ रही है। लगभग 54 करोड़ से अधिक जनधन खातों, 138 करोड़ आधार कार्ड तथा 115 करोड़ से अधिक मोबाइल उपभोक्ताओं की शक्ति वाले जैम से सुगठित डिजिटल ढांचा गरीबों के सशक्तीकरण मे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। पिछले दस सालों में 40 लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि लाभार्थियों के खातों में सीधे हस्तांतरित हो चुकी है। आज गांवों के लाखों घरों को स्वच्छ पेयजल मिल रहा है। लोगों को डेढ़ लाख आयुष्मान आरोग्य मंदिरों से बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिल रही हैं। डिजिटल तकनीक की मदद से डाक्टर और अस्पताल भी गांवों से कनेक्ट हो रहे हैं। पीएम किसान सम्मान निधि के जरिये किसानों को छह हजार रुपये की सालाना आर्थिक सहायता दी जा रही है। पिछले 10 वर्षों में कृषि ऋण लगभग साढ़े तीन गुना बढ़ गया हैं। स्वामित्व योजना के जरिये गांव के लोगों को संपत्ति के दस्तावेज दिए जा रहे हैं। मैकिन्से ग्लोबल फार्मर्स इनसाइट सर्वे 2024 के अनुसार सस्ता डाटा और लोकप्रिय यूपी आई के चलते भारतीय किसान तेजी से डिजिटल भुगतान को अपना रहे हैं। वर्ष 2022 में जहां मात्र 11 प्रतिशत किसान ही डिजिटल भुगतान का प्रयोग कर रहे थे, वहीं वर्ष 2024 में लगभग 40 प्रतिशत किसानों ने डिजिटल माध्यम से भुगतान किया है। जहां वर्ष 2022 में देश में 8 प्रतिशत किसानों ने ही फसल बीमा का उपयोग किया था, वहीं वर्ष 2024 में यह बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया है। वर्ष 2022 में लगभग 2 प्रतिशत किसानों द्वारा जैविक उत्पादों का प्रयोग किया जा रहा था, जो वर्ष 2024 में बढ़कर 11 प्रतिशत हो गया है। भारत के किसान अब निरंतर महाजनी और ग्रामीण सूदखोरी से निवृत होकर औपचारिक ऋण की ओर बढ़ रही है। वर्ष 2024 में 36 प्रतिशत किसानों ने बैंक से कर्ज लिया, जो वर्ष 2022 में केवल नौ प्रतिशत था। लगभग 26 प्रतिशत किसानों ने सब्सिडी वाले सरकारी ऋण का उपयोग किया, जबकि वर्ष 2022 में यह आंकड़ा सिर्फ एक प्रतिशत का था। आज भारत के 53 प्रतिशत किसान फसल चक्रीकरण जैसे सस्टेनेबल खेती के तरीकों को अपनाने के लिए सरकारी सब्सिडी पर निर्भर हैं। सरकार लागत में छूट, कार्बन क्रेडिट से आय बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन आदि सहायता प्रदान कर रही है। अब पशुपालकों और मछली पालकों को भी किसान क्रेडिट कार्ड दिए जा रहे हैं। गांव के युवाओं की मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया जैसी योजनाओं के जरिये सहायता की जा रही है। डिजिटल इंडिया, शौचालय, स्वच्छ पेयजल और स्वच्छ ईंधन के लिए उज्ज्वला योजना, सभी घरों में बिजली के लिए सौभाग्य योजना जैसे अभियानों से भी ग्रामीण भारत में गरीबी में कमी आ रही है।
गांवों से जनसंख्या प्रवास और नई तकनीकों के कारण भूमि और कृषि पर जनसंख्या का दबाव कम हुआ है। आर्थिक समीक्षा 2024 के अनुसार भारतीय कृषि क्षेत्र 42.3 प्रतिशत आबादी को आजीविका प्रदान करता है और वर्तमान मूल्यों पर देश की जीडीपी में इसकी 18.2 प्रतिशत की भागीदारी है, जबकि 1947 में लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित थी। कृषि क्षेत्र में परिवर्तन का तात्पर्य गांव में परिवर्तन से है। निश्चित रूप से कृषि उत्पादन में सुधार हुआ है और कृषि में मजदूरी बढ़ी है। ग्रामीण साक्षरता दर और ग्रामीण स्कूलों में नामांकन में वृद्धि हुई है। वैकल्पिक रोजगार की तलाश में प्रवासन, गैर-कृषि रोजगार और वहां से प्रेषित आय ने गांवों को विविध तरीकों से बदल दिया है, जिसका प्रभाव माइक्रो लेवल पर जातीय और लिंग संबंधों पर पड़ा है। गांवों में सामाजिक पदानुक्रम, सामंती व्यवस्था और श्रम प्रणाली बहुत हद तक कमजोर हो गई है। हरित क्रांति के लाभार्थियों ने अपनी आय के स्रोतों में विविधता लायी है। वैकल्पिक रोजगार की उपस्थिति में वर्तमान पीढ़ी कृषि कार्य में रुचि नहीं दिखा रही है, लेकिन अभी भी गांव में उच्च जातियों का भूमि-प्रधान वर्चस्व जारी है। दलित लगभग पूरी तरह से कृषि श्रम करते हैं, साथ ही गैर-कृषि क्षेत्र में अवसरों का विस्तार भी हुआ है। नौकरीहारा वर्ग ने सीधे कृषि कार्यों से मुक्ति लेकर खेतो को बंटाई या ठेकेदारी पर दे दिया है। गांवों में भी गैर-कृषि कार्य के अवसर सृजन ने व्यवसायों और कार्य प्रोफाइल के सामान्य विविधीकरण को जन्म दिया है। गांवों से सामान्यतः पुरुष पलायन कर गए हैं और गांव के बाहर शहरों में नौकरी ढूंढ रहे हैं। महिलाएं के गांवों में रहने से कृषि कार्य बल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ गई है। स्पष्ट है कि ग्रामीण श्रम बाजार में संकुचन, उच्च मजदूरी और मजदूरी में लिंग अंतर में कमी आई है। नाबार्ड के एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण खेतिहर परिवारों की औसत आय अब कृषि से ज्यादा दैनिक मजदूरी से होने लगी है। जाहिर है कि कृषकों की अपेक्षा खेतिहर मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई है। कृषक परिवारों मासिक आय का 19 प्रतिशत कृषि से और दैनिक मजदूरी से 40 प्रतिशत आता है। आज लगभग 87 प्रतिशत ग्रामीण घरों में मोबाइल ने अपनी पहुंच बना ली है, जबकि 88 प्रतिशत परिवारों के पास अपने बचत खाते हैं। आज 58 प्रतिशत परिवारों के पास टीवी, 34 प्रतिशत परिवारों के पास मोटरसाइकिल, 30 प्रतिशत परिवारों के पास कार और लगभग 2 प्रतिशत परिवारों के पास लैपटॉप और एयरकंडीशन भी पहुंच गए हैं। खेती करने वाले 26 प्रतिशत और गैर-कृषि क्षेत्र के 25 प्रतिशत परिवार बीमा के दायरे में आ गए हैं। पेंशन योजना के अंतर्गत 20 प्रतिशत कृषक परिवारों ने और 19 प्रतिशत गैर-खेतिहर परिवारों ने हिस्सेदारी ली है। ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 47 प्रतिशत परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं।
इन आर्थिक और तकनीकी परिवर्तनों ने समाज और संस्कृति पर असर डाला है। गांवों में पहले जो सुख-शांति, स्वस्थ प्राकृतिक वातावरण और सहकारिता की भावना थी ,वह इन आर्थिक प्रगति की राहों में कुचल सी गई है। आतिथ्य परंपरा ग्रामीण समाज की विशेषता हुआ करती थी। पहले एक घर का मेहमान, पूरे गांव का मेहमान होता था, यह अब समाप्त प्राय है। पहले शहर के बड़े-बड़े क्लब गांवों की चौपाल के सामने फीके पड़ जाते थे। ग्रामीण चौपालों में शहरी क्लबों की तरह दिखावटी तौर-तरीके नहीं थे। पहले ग्रामीण रागनियां, आल्हा , चैती, बिरहा, नौटंकी और लोकगीतों के माध्यम से ही अपना मनोरंजन करते थे। आज आल्हा गाने की परंपरा गांवों से लुप्त हो चुकी है। आधुनिकता की चकाचौंध में रागनियां और लोकगीत भी गांवों से समाप्त हो रहा है। मोबाइल और टेलीविजन के कारण गांवों की चौपालें भी फीकी पड़ती जा रही हैं। लेकिन दूसरी तरफ मोबाइल और टीवी के माध्यम से ग्रामीणों को विश्व की किसी भी घटना की दृश्य सहित नवीनतम जानकारी तीव्र गति से प्राप्त हो जाती है। ग्रामीण इलाकों में भी अब अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल खुल गये हैं। गांव को पहले मिट्टी के कच्चे मकानों और झोपड़ियों का पर्याय माना जाता था। लेकिन विकास और समृद्धि के कारण गांवों में अब ईंट और सीमेंट के पक्के मकान बन रहे हैं। गांवों में एक वर्ग तो ऐसा है, जिनके घरों में सुख-सुविधाओं के लगभग सभी साधन उपलब्ध हैं। अब ग्रामीणों के पास परिवहन के सभी आधुनिकतम साधन जैसे स्कूटर, मोटरसाइकिल और कारें उपलब्ध हैं। एकतरफ आज गांव और शहर के बीच की दूरी सिमटती जा रही है, लेकिन इससे पृथक गांव में ही इंसान की इंसान से दूरी बढ़ती जा रही है। असल में लद्दाख के गांव हों या फिर राजस्थान में रेत के टीलों की ओट में बसे गांव और ढाणियां , तमिलनाडु के गांव हों या मिजोरम का गांव सबकी अपनी अपनी विशिष्टताएं है, लेकिन परिवर्तन तो हरेक गांव में हो रहा है।
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