चित्रकूट में स्वतंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं की कहानी है। हालांकि इतिहास लेखन में नेताओं की भूमिका पर फोकस करने के कारण आम जनता द्वारा किते गये विद्रोहों और आंदोलनों को पर्याप्त जगह नहीं मिल पाई। वस्तुत समस्त राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन लाखों हजारों छोटे छोटे विद्रोह, असंतोष, आंदोलन, घटनाओं का सम्मिलित रुप है जिसे अब सबलटर्न इतिहास लेखन  में स्थान दिया जा रहा है। ऐसी ही एक विद्रोह चित्रकूट में जो उस समय बांदा में था, के में तहसील में हुआ था। कहते हैं कि बलिया बागी हो गया था और सन 1947 से पांच साल पहले ही अपने को स्वतंत्र घोषित कर चुका था , उसी तरह चित्रकूट भी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से 15 साल पूर्व ही क्रांति का उद्घोष कर चुका था परंतु इतिहासकारों ने इसे उचित स्थान नहीं दिया। यह सामूहिक विद्रोह था, जिसका कोई नेता नहीं था। बांदा गजेटियर में इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख है कि  पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोहत्या के विरुद्ध एकजुट हुई हिंदू-मुस्लिम समुदाय के लोगों ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया था। इस संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान  बुर्कानशीं महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी थी। उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध करवाते थे तथा गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के डर से बोलते नहीं थे। कुछ लोगों ने  मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद की, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों का विरोध करने से इंकार कर दिया। लेकिन जनमानस के सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। यह असंतोष एकत्रित होते हुए ज्वालामुखी में परिणत हो गई और  06/06/1842 को  हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और बुर्कानशीं महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर अंग्रेजों के सामने बगावत के नारे बुलंद कश्यप दिये। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम बिरादरी की बराबर की हिस्सेदारी थी। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं। देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक बना लिये गये । इसके बाद तहसील परिसर में ही पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। यह अद्भुत क्रांति थी जिसमें जनता ने खुद फैसला सुनाया था। यह इतिहास में अपने तरह की अकेली घटना थी। जनक्रांति की यह ज्वाला यहीं नहीं रुकीं। असंतोष तो पहले से ही था, सिर्फ चिनगारी भर लगनी थी, जो मऊ में जला दी गई थी। क्रांति की चिंगारी बगल के राजापुर बाजार पहुंची और वहां से अंग्रेज अफसरों को खदेड़ दियु गया। अब तो आसपास के जमींदारों का भी हौसला बढ़ गया था। देखते देखते मर्का और समगरा के जमींदार भी इस आंदोलन में कूद पड़े।  8 जून को बबेरू बाजार सुलग उठा तो मऊ में अंग्रेजी अफसरों का हश्र जानकर वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भाग लिए । जनाक्रोश इतना तीव्र था कि उसके सामने अंग्रेजों का इकबाल ध्वस्त हो गया। क्रांतिकारियों ने जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील में  सरकारी अभिलेखों को जलाकर सरकारी खजाने से तीन हजार रुपये भी लूट लिये। अंग्रेजी सरकार ने क्रांति को कुचलने के लिए देशी जमींदारों का सहारा लिया । पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट में दमन करने के लिए भेज दिया। उधर बांदा छावनी में छुपे अंग्रेजों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाई और बीवी-बच्चों के साथ बांदा नबाव के यहां पहुंच गये। लेकिन भारतीय राजाओं की फौज तो पहले से ही अंग्रेजी शासन के विरुद्ध क्रांति करने को तैयार बैठी थी। वे चित्रकूट पंहुच कर क्रांतिकारियों के साथ मिल गये। क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इतना ही नहीं जनमानस से अंग्रेजों का भय खत्म करने के लिए उसके कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे। काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया था। लगभग तीन हफ्ते तक बुंदेलखंड आजाद रहा, शीघ्र ही अंग्रेजों ने दमन चक्र चलाया। जिस स्थान पर मऊ में अंग्रेजों को फांसी पर लटकाया गया था, वहीं पर प्रतिशोध स्वरुप अनेक क्रांतिकारियों को फांसि दी गई। चुंकि यह विद्रोह 1857 से पहले हो गया था इसलिए अंग्रेजों को बुंदेलखंड पर पुनः: कब्जा कर लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी परंतु चित्रकूट का यह विद्रोह प्रतीक था कि अंग्रेजों के विरुद्ध आम जनमानस मे कितना असंतोष है और वह उनके विरुद्ध कितने हद तक जा सकते हैं। बुंदेलों के इस असीम साहस और प्रतिरोध को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उचित स्थान न मिल सका है।

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