वर्चुअल रियलिटी

तो ये हवा हवाई की दुनिया है जिसमे सत्य कुछ भी नही बस सत्य का आभास(वर्चुअल) देती है लेकिन जुकरबर्ग ने ऐसा घनचक्कर हाथों मे थमा दिया है कि जिसमे दुनिया मस्त है। पड़ोस के लोग जानते नही, कहते हैं इतने मेरे फालोवर, इतने मेरे फ्रेंड! आज कुछ फेसबुकिया फ्रेंड्स ऐसे भी है, जिन्होंने आजतक एकबार भी हमारे किसी पोस्ट पर न तो रियेक्ट किया ,न ही मैने ही उनके पोस्ट पर किया है, फिर भी हम फ्रेंड्स हैं और गाहे बेगाहे सालों से एक दूसरे की पोस्टों पर ताका झांकी( शायद) करते आ रहे हैं। यह उस  शहरी समाज के सदृश है, जहाँ की सोसायटी/ कालोनी मे रहते तो सभी हैं, पर हेलो- हाय भी कुछ ही लोगों से होती, शेष आदमी सिर्फ अपने मकान नंबर से जाने जाते हैं। अबतक कई लोगों को हमने अनफ्रेंड किया( कारण के और बिना कारण के भी), अनेकों ने मुझे भी कर दिया पर फर्क दोनों मे से किसी को न पड़ा ।जैसे शहरी सोसायटी मे लोग, किरायेदार या मकान मालिक आते जाते रहते हैं, कभी मकान छोड़कर तो तो कभी घर बेचकर! गांवों मे ऐसा नही होता। गांव मे अमूमन एक दूसरे के दादा परदादा तक को हम जानते हैं और वहाँ किसी के न टोका टाकी करने और गांव छोडकर जाने से फर्क पड़ता है। एकबार किसी वास्तविक ( आभासी नही) मित्र ने पूछा कि आप फलाने साहब को कैसे जानते हैं? मैने तो उनको आपके फेसबुक फ्रेंड लिस्ट मे देखा है। मै हंसा और बोला" फेसबुक फ्रेंड होने के लिए एकदूसरे को जानना थोडे न जरूरी होता है। यहाँ तो बस  लोग डाटा और समय( ज्यादातर बेकार ही हैं) खर्च  करके फ्रेंड, लाइक्स और कामेंट का आकंड़ा बढाने मे लगे हैं। जैसे ही किसी के मित्र के फ्रेंड लिस्ट मे देखा और रिक्वेस्ट भेज दिया, सामनेवाले ने भी देखा की इनके कितने म्युचुअल फ्रेंड है, बस एक्सेप्ट कर लिया। आखिर दोनों को 5000 का आंकड़ा जल्द छूना भी तो है। अब फेसबुकिया कंटेंट पर आते हैं तो अपने देश मे वास्तव मे तीन चीजें ही गासिप के लिए ज्यादा आकर्षित करती है--   राजनीति, फिल्में और क्रिकेट। चाहे चौक -चौराहा हो,गंवई बैठकी हो, स्कूल - कालेज हो या पत्र पत्रिकाएं या टीवी ह़ो, सब जगह यही मुख्य विषय हैं। लोग चटखारे लेकर बातें करते मिलेंगे और मजे की बात यह कि सबको इन विषयों पर मास्टरी हासिल है, कई  तो इसपर एम फिल, पीएचडी भी कर चुके होते हैं। इतना कांफिडेंटली बोलेंगे ,जैसे वो सीधे ग्राऊंड रिपोर्टिंग कर रहे हों।सोशल मीडिया भी इसका अपवाद नही है। फेसबुक पर 95 प्रतिशत पोस्ट लगभग इन्हीं विषयों के होते हैं और अपना फुल्ली ज्ञान यहीं उड़ेलते हैं। अब आभासी युद्ध(वर्चुअल वार) पर आ जाइये तो ये लोग कब.का युद्ध करा दिया ये और जीत भी गये। रियेक्ट इतना तेजी से करते हैं जैसे अमेरिकी नेवी सील के सदस्य हों और रातोंरात ओबामा मिशन पूरा कर लेंगे।इनकी बकैती और बकथोथी मे पाकिस्तान के बाद चाइना टारगेट पर रहता है, उसमे भी चाइनीज सामान। हरेक होली दिवाली मे खुद करेंगे सबसे ज्यादा चाइनीज सामानों का उपयोग ,पर फेसबुक  पर  बहिष्कार.. बहिष्कार..। चिल्लायेंगे। अच्छा! क्या कहा? सच्ची मे..।चाईनीज मोबाइल से फेसबुक पर बहिष्कार टाइप करने पर वर्चुअल बहिष्कार स्वतः स्फुर्त प्रारंभ हो जाता है । अच्छा ! तो  यह उस तांत्रिक प्रक्रिया की तरह है जिसमे पुतले का गर्दन तोड़ने से उस आदमी की मृत्यु हो जाती है, जिसके निमित्त उसमे प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। भारत तो तांत्रिकों और काला जादू का देश रहा ही है! कहावत  भी है "खाये भीम हगे शकुनि"! चाऊमीन खाकर चीन को गाली देने पर शी जिनपिंग के पेट मे दर्द होने लगता है। चायनीज सूप पीकर मूतने से व्हांगहो नदी मे बाढ़ आ जाती है। चायनीज पटाखे जलाने से बीजिंग मे वर्चुअल बम गिरने लगते हैं और चायनीज रंग लगाने से चीनियों के गाल बिना मार खाये लाल हो जाते हैं। तो अपने अपने चायनीज मोबाइल से फेसबुक पर 101 बार बहिष्कार लिखना शुरू करें, कृपा बस वहीं रुकी है, इसीलिए बार बार ग्लोबल आतंकी घोषित होने मे ब्रेक लग रहा है। टोटका करने से हो सकता है कि  सम्मोहित होकर वे स्वयं अजहर के खिलाफ प्रस्ताव लेकर  साबरमती फ्रंट पर झूला झूलने आ जायें। वैसे भी भारतीयों मे चीनी/शुगर की बिमारी बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। वर्चुअल रोग से पीड़ित इस समाज का इलाज भी वर्चुअल ही है।

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