टिपिकल गांव बखेडा़पुर
गांवो की कहानियां मुझे फैंटेसाइज करती है, तो हरेप्रकाश उपाध्याय जी का उपन्यास" बखेडा़पुर" मुझे फिर से अपने गांव मे ले गयी। वाकई यह उपन्यास नही, एक जीता जागता गांव है जो खुद सामने आकर सिनेमा की तरह पर्दे पर खुद को दिखाता है। जैसा कि प्रकाशकीय वक्तव्य मे कहा भी गया है कि इसमे कोई नायक नही है, बखेड़ापुर स्वयं मे नायक है। कथा के केंद्र मे गांव का स्कूल रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय है जो अमूमन गांवो मे होता है। टिपिकल बिहारी ग्रामीण स्कूल, स्कूली शिक्षा, बिआहकरण पढाई, जैसा चटिया ( छात्र) वैसे गुरुजी और स्कूल मे पढाई के अलावा सभे कुछ होता है ,इस थ्योरी को सिद्ध करता है यह विद्यालय । ग्रामीण परिवेश मे अंधविश्वास, टोटमा, डायन, भूत प्रेत, अवैध संबंधों का खुलापन, गालियों की भरमार की बखुबी चित्रण किया है लेखक ने। मेरी समझ मे सामंती बिहार के इस गांव मे रुप चौधरी नायक के रुप मे उभरता है और परबतिया हिरोइन बनके। भले ही इनका चरित्र विशेष उभरकर सामने नही आता पर असली हीरो के गुण जैसे अन्याय का प्रतिकार, बड़े लोगो के खिलाफ खड़ा होने का साहस, हिरोइन के प्रति लगाव और संरक्षण। संगीता मैडम के चरित्र ने तो जबरदस्त मौके पर चौका लगाया। ग्रामीण जातीय संकीर्णता, छुआछुत, टोलाबंदी, नक्सलवाद के उत्थान और प्रसार, काऊंटर नक्सलिज्म( महावीर सेना) ,तात्कालिन बिहारी राजनीति, राजनीतिक वर्चस्ववाद, राजनीतिक कुटिलता का बड़े गहरे अर्थो मे विश्लेषण किया गया है।
बखेड़ापुर वाकई मे कोई गांव है क्या, पता नही पर यह वाकई मे हरेक डांव की कहानी लगती है। पहले मै भी गांवों पर एक उपन्यास लिखना चाहता था पर इसको पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा है कि बाकी क्या बचा,जिसे मै लिखुंगा। ये मुझे अपने गांव" प्रेमनगर" मे ले गया था। इसके हरेक पात्र को मै अपने गांव मे तलाश रहा था और वो मुझे मिल भी रहे थे। हरेक गांव का अंत शहर मे होता है, हरेक गांव मे शहर बनने की प्रवृत्ति होती है और ग्रामीणों मे शहरों की ओर पलायन की। बखेडा़पुर का भी अंत शहर पटना मे होता है। उपन्यास की शुरूआत भी उसी दोनो दोस्तों के गंवई आख्यान से होती है तो वही दोनो अंत मे शहर मे बैठकर गांव को याद कर रहे होते हैं। जैसे लोटन बो डायन बनकर बच्चों को खा जाती है वैसे ही शहर भी गांवो को खा रही है। वैसे उपन्यास मे खाने का मतलब और ही निकाला गया है, जो गंवई भाषा मे प्रचलित है। बिंबो से खेलना लेखक का शगल है जैसे भरी दुपहरी मे जब भैरव चाचा लोटन बहु पर सवार होते हैं तो सुदामा का बालमन जो सोचता है, भय से। " लोटन बहु ने भैरव चा को बच्चा बना दिया है, इसलिए छाती का दूध पी रहे हैं या सुदामा और साक्षी भरी दुपहरी मे छत पर चाचा- चाची के खेल खेल रहे होते हैं। पंचमा मास्साब तो प्राइमरी के मास्साब की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। लेखक ने समकालीन राजनीति के कई चेहरों को सामने रखकर वास्तविक रुप मे रचना की है। मुख्यमंत्री तो लालू यादव के अलावा कोई और हो ही नही सकते। राजनीतिक लंठवाद की पराकाष्ठा का समय था वो। कई लोग उसे जंगलराज भी कहते हैं पर लेखक ने न कहते हुए भी तात्कालिक जंगल मे वर्चस्व का वर्णन एकमात्र घटना चोरी के कार को उनके आवास मे दिखाकर बिंबित कर दिया है।
पुस्तक को भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है और इसे नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है।यदि आप ग्रामीण कथाओं मे रुचि रखते हैं और दशक -दो दशक पुर्व के टिपिकल बिहारी गांव के समाज, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, राजनीति, सामंती सोच और अंधविश्वास मे डूबे लोगों को देखना चाहते हैं तो "बखेडा़पुर " का अवश्य भ्रमण करें, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक के माध्यम से। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि इसके चार संस्करण प्रकाशित किए जा चुके हैं।
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