खेलोगे कूदोगे होगे खराब

"खेलोगे कूदोगे होगे खराब
पढोगे लिखोगे बनोगे नबाव।"
समाज की ये सोच अब पहले जैसी नही रह गई है फिर भी बहुत ज्यादा बदली नही है। वस्तुतः खेल को कैरियर के रुप मे अभी भी मान्यता नही मिली है।अंतरराष्ट्रीय इवेंट्स मे  मेडल जीतने पर भले ही सरकार या अन्य लोग पैसों की बरसात करने लगे पर  उससे पहले उन्हें कोई नही पूछता। कितनी कंपनियाँ अनजान खिलाड़ियों को स्पोंसरशिप दे देती है। उन्हें नामी गिरामी खिलाड़ी चाहिए जो उनका प्रोडक्ट बेचने मे उसका विज्ञापन कर सके। तब चीन से अपनी तुलना मत करिए, दुख होगा! वहाँ " खेल" को इंडस्ट्री की तरह मान्यता और ट्रीटमेंट है तो भला क्यों न वो विजेता होंगे। यहां तो किसी भी खिलाड़ी की जिंदगी उठाकर पढ़ लीजिए, पता चल जाएगा  कि वो कैसे वहाँ तक पहुंचे हैं  जहाँ वो आज है! मात्र अपने जज्बे और साहब के सहारे समाज और सरकार से लड़कर! सब चाहते हैं कि धोनी/ तेंदुलकर/ भूटिया/साइना / सिंधु उसके घर मे पैदा हो पर मध्यमवर्गीय मानसिकता किसी भी धोनी को रेलवे की नौकरी छोड़ने देना नही चाहती। संसाधन विहीन " बुधिया" गुमनामी के अंधेरे मे खो जाता है।" स्वपना" के गोल्ड मेडल पर हक जताने वाले आज कई लोग सामने आ जायेगे पर जब वह भूखे प्यासे संघर्ष कर रही थी, कोई पूछता नही था। कोई जाकर देखे की हरियाणा कैसे " कुश्ती " / बाक्सिंग को प्रोफेशनल तरीके से हैंडल कर रहा है तभी तो वहां घर घर मे मेडलों की बरसात हो रही है और गर्व से वहां हर कोई कहता है
" हमारी छोरियाँ  , छोरों से कम है क्या?"
  खेल को शौकिया से प्रोफेशनल बनाने का सफर लंबा है जो हमारे देश की मानसिकता से जुड़ा है वरना भारत मे सैकड़ो "केन्या " मौजूद  है .बस तलाशने और तराशने की जरूरत है। कहीं तो कमी है सोच और प्लानिंग मे कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश आजतक दूसरा" मिल्खा" और " पी टी उषा" पैदा नही कर सका। भारतीय खेल को ज्यादा महत्व क्यों नही देते? क्यों इसे सिर्फ़ शौकिया तौर पर लेते हैं? या इसे शरीर को स्वस्थ रखने और खुद को फिट रखने के लिए ही अपनाते है? मूल कारण है कैरियर या जाब सिक्योरिटी! यदि हम इसे कैरियर बनाना चाहेंगे तो आजीविका प्राप्त करने की गारंटी कहां है? आप कहेंगे कि नौकरी त़ो मिलती है! पर सिर्फ उनके लिए कोटा है जो राज्य स्तर या नेशनल/ इंटरनेशनल स्तर पर खेल  चुके हैं। किसी एशियाड या ओलंपिक मे जीतने पर पुरस्कार की वर्षा होती है पर पहले वहाँ कोई पहुंचे कैसे? क्यों  नवोदय विद्यालय/ सैनिक स्कूल की तरह स्पोर्ट्स स्कूल स्थापित करते हैं जिसमे स्कूल लेवल से उसे उसे स्पोर्ट्स की ही पढ़ाई और प्रैक्टिस करने का मौका मिले। उसे वहाँ यह लगे कि यदि स्पोर्ट्स स्कूल से निकलने के बाद स्पोर्ट्स कालेज और अकादमी मे चयन हो जाएगा। स्पोर्ट्स कालेज वालों को मीनिमम जाब सिक्योरिटी प्रदान किया जाय!  चीन मे खिलाड़ियो का प्रोडक्शन किया जाता है, वहाँ खिलाडियों की फैक्ट्रियां हैं। हालांकि वहां अमानवीय ट्रैनिंग प्रोसेस भी है जिसपर काफी सवाल खड़े किए जाते हैं पर आप उसमे सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर अकादमी तो बना ही सकते हैं। आज स्पोर्ट्स क्या है? पच्चीस सब्जेक्ट मे से एक सब्जेक्ट मात्र है। स्कूलों मे अंतिम पीरियड खेल का है जिसमे ज्यादातर बच्चे भाग जाते हैं। जबतक किसी चीज मे प्रोफशनलिज्म का अभाव होगा, प्रगति नही हो सकती। हम अभी एशियाड मे इतने पीछे हैं तो ओलंपिक की बात ही क्यों करें? ये भी देखना होगा हम भारतीयों को कि खेल सिर्फ क्रिकेट नही है? वो सिर्फ गिने चुने देशों मे खेला जाता है। किसी भी देश मे खेल स्तर का मानक "एथलेटिक्स "है। एशियाड, कामनवेल्थ, और ओलंपिक मे स्वयं को स्थापित करने के लिए भारत मे खिलाड़ियों की कमी नही है, सोच/ मानसिकता/ और दृष्टिकोण की कमी है।

Comments

Popular posts from this blog

कोटा- सुसाइड फैक्टरी

पुस्तक समीक्षा - आहिल

कम गेंहूं खरीद से उपजे सवाल