गांधी- पहला गिरमिटिया

ईश्वर जो करता है वो अच्छा ही  करता है। कबसे इच्छा थी कि "गिरमिटियों " के बारे मे पढूँ, पर समयाभाव मे पढ़ नही पा रहा था। हम लोग  बिना एग्रीमेंट के " गिरमिटिया" बने बैठे हैं। शुक्र हो " चिकेन" के नामवाली बिमारी(चिकनगुनिया नही) का जिसने घर पर बैठा दिया, वैसे मै चिकेन खाता तो नही पर न जाने ये शाकाहारियों को भी पशु- पक्षी नामावली वाली बिमारी कैसे हो जाती है? शायद जानवर वाले अंश, जो बचा है, उस पर अटैक जल्दी करता है। गांधीजी भी वही करते रहे, अपने मे से पशुता को हटाते रहे!" गांधी इन मेकिंग के दौरान। खैर! इतिहास तो थोडा़ बहुत पढा है मैने, गांधीजी को भी पढा है, थोड़ा बहुत गांधीवाद भी जानता हूँ, पर गांधीजी को इस किताब मे नये दृष्टिकोण से देख पाया।उनका  एक अलग चरित्र, व्यक्तित्व, कार्यशैली और विचार शैली देखने को मिला।मोहनदास से गांधी तो " एक गिरमिटिया" ही बन सकता था।जैसे महावीर और बुद्ध को रासलीला के बाद संसार की निस्सारता का बोध हो पाया, उसी तरह मोहनदास को अफ्रीका मे अपने शरीर के रंग का भान हो पाया, उससे पहले तो वे अंग्रेजी वेशभूषा और डिग्री के पीछे उसे छिपाने का प्रयास करते रहे थे या यूं कहें कि खुद को धोखा दे रहे थे। यदि दादा अब्दुल्ला ने पहली बार देखते ही उन्हे " व्हाइट एलीफेंट" कहा तो गलत नही कहा था। उपरी आवरण तो  ट्रेन से फेंके जाने के बाद उतरा और गांधीजी अपने शरीर का रंग देख पाये।वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका उनकी प्रयोगशाला  थी ,जिसमे उसने अपने सारे प्रयोग कर डाले और वो सारे " दिव्यास्त्र" प्राप्त किये जिससे   भारतीय रणक्षेत्र मे विजय पायी। जब मै गांधीजी को पढ़ता हूं तो लगता है उन्होंने अपने परिवार और पत्नी के साथ ज्यादती की, उन्होंने अपने प्रयोगों मे उन्हें बिन चाहे उपयोग किया।उनके बापू के मौत की घटना के समय उनका अपनी पत्नी के साथ होने मे पत्नी से ज्यादा दोष उनका स्वयं का प्रतीत होता है परंतु बार बार इस घटना का जिक्र  गैरों के सामने कर अपनी पत्नी को ही दोषी ठहराना मर्दवादी मानसिकता का परिचायक है।पुस्तक मे बार बार इसके जिक्र के पीछे लेखक गांधीजी के सच स्वीकरने की क्षमता, ब्रहृचर्य धारण करने को उचित ठहराने एवं बापू के प्रति असीम प्रेम को दर्शाने के लिए करते हैं।पुस्तक की समीक्षा करने की क्षमता नही मुझमे पर इतना अवश्य है कि लंबी समुद्री यात्राओं का विवरण, दक्षिण अफ्रीका की भौगोलिक,ऐतिहासिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विश्लेषण के लिए अपार मेहनत की गई है। गांधी से हमे कई चीजें सीखनी चाहिए जैसे प्रतिरोध न करने पर आपके प्रति हिंसा करने का नैतिक बल सामनेवाला खो देता ह और वह खुद को कमजोर समझता है। यह आपके पक्ष मे सहानुभूतिवश ही अनेक लोगों को खड़ा कर देता है। इतना ही नहीं अन्याय का विरोध अवश्य करना चाहिए क्योंकि जबतक अपनी बातें सामनेवाले के पास आप पहुंचायेंगे नही तबतक वो इसे अपना अधिकार मानता रहता है और विरोध न करने पर वह बढ़ता जाता है।उपन्यास शैली मे लिखी जाने के कारण गांधीजी के जीवन का मध्यकाल रोचकशैली मे सामने आता है। यह विश्व भर मे फैले हमारे भारत वंशियों की अमिट दास्तान है जिसने सुनहरे भविष्य के लिए अपना समाज, परिवार और देश त्याग कर लंबी समुद्री यात्राएं की। हजारों तो अपनी मंजिलों पर पहुंच ही नही पाये और जो पहुंचे भी उनका सपना " गोरो" की रंगभेदी और नस्लभेदी नजरो के पहाड़ तले पिसकर रह गई। अपने खुन पसीने से सींचकर इन देशों को आगे बढाया पर जब अधिकार की बात आई तो कोड़ो, हंटरो का सामना करना पड़ा। महसूस हुआ कि इससे बेहतर तो अपना देश ही था पर वापस कैसे लौटें, बीच मे हजारों मील लंबा समुद्र मूंह बाये खड़ा था ।" दो गज जमीन भी बसर न हुई अपने वतन मे!" वहीं मिट गये पर बीज छोड़ गये।उपन्यास मे विदुषक भी है" मर्सले!" जिसके बारे गांधीजी की सोच प्रतीत होती है" हाथी चले बाजार, कुता भूकें हजार!" तात्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं के जीवनशैली और कार्यप्रणाली के बारे मे संक्षेप मे ही बहुत कुछ कह दिया है लेखक ने ,जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन उस समय कितना सतही था, जिसका आम भारतीय से कोई मतलब नही था। जन आंदोलन तो गांधीयुग मे बन पाया था। अफवाहों के माध्यम से उस समय कैसे जीते जागते इंसान को देवता बनाया जाता था, इसकी भी झलक इसमे मिल जाती है।  आलोचकों के अनुसार उपन्यास मे गांधीजी के बारे मे इसमे काफी बढ़ा चढाकर लिखा गया है, उनका महिमा मंडन किया गया है।लेकिन इसमें गांधी के दुर्बल पक्षों को भी दिखाया गया है, लेकिन मुलम्मा लगाकर। बड़े भाई को आगे खर्च के लिए पैसे न देने की बात करके तात्कालिक भारतीय पारिवारिक परंपरा का निर्वहन नही किया। बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों मे न पढाने की जिद, जबकि स्वयं विदेश मे पढ़े थे, हठधर्मिता प्रतीत होती है। अपने परिवार को मीलों दूर छोड़कर किसी अन्य मित्र परिवार की सेवा सुश्रुषा करना किस नीति के तहत था? अपनी कल्पना को साकार करने के के लिए " फार्म" स्थापना एवं सबको वहां रहने के लिए मजबूर करना, एक बार बात न मानने पर पत्नी को घर से निकालने का प्रयास, इन मानवीय दुर्गुणों से परे नही थे वे। पर सबसे अच्छी बात की सत्य स्वीकारने का साहस था उनमे। काश! जिस अन्य दो पार्ट" मोहनिया" और " गांधीजी" का जिक्र लेखक ने किया है, वो लिख देते तो गांधीजी के जीवन के अन्य कई पहलु सामने आ जाते।

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