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Showing posts from May, 2017

कंफ्युजिंग टाइटिल

बिहार मे जगन्नाथ मिश्रा की सरकार को ब्राह्मणों की सरकार कहा जाता था। कहते हैं उस समय सभी डिपार्टमेंट मे ब्राह्मणों की धड़ल्ले से घुसपैठ हुई। यही हाल यादवों का लालू- राबड़ी मे हुआ। कहते हैं नीतीश के जमाने मे वो जोर कुर्मियों का नही है पर स्पेशल अटेंशन तो अवश्य होगा। ऐसा हम नही कह रहे हैं....हमारी जातिवादी सोच कह रही है या हम ऐसी धारणा बना लिए हैं। वास्तव मे ये जातीय लगाव किसी एक खास जाति की बपौती नही है बल्कि सभी इसका रसास्वादन करते रहते हैं ।जब भी मौका मिल जाये, प्यार छलक जाता है। नही भी छलकता है तो हम इतना हिला डुला देते हैं कि छलक जाता है। थोड़ा सेंटी पिलाते हैं, भावनाओं को भड़काते है, साम दाम दंड भेद सब अपनाते हैं पर अपना काम जरूर कराते हैं। यदि न भी मंशा रही हो तो भी हमारी कलम और वाणी मे इतना दम है कि हम  साबित कर देते हैं कि अमुक कार्य तो जातीय प्रेम मे ही हुआ है।भला क्यों न करें? यह हमारा सांविधानिक हक जो है! हम पहले से प्रिज्युडिस हो जाते  हैं कि अब तो इसी जाति का ही काम होगा! अब तो इसी जाति के अफसर हीं पोस्टिंग पायेंगे! अगर गलती से कोई केस निकल भी आया तो पक्के दावे पर ...

जिंदगी का सफर

इस  दुनिया मे एक साथ कई स्तरों पर जीवन का विकास होता रहता है। भारत मे ही हम देंखें तो मुंबई और कालाहांडी-बस्तर की जिंदगी मे तीन सौ सालों का फर्कमहसूस होता है।एक ओर् जहाँ मुंबई- बंगलौर के हाई फाई सोसायटी बाइसवीं सदी मे जी रही है तो लखनऊ - चंडीगढ़ इक्कीसवीं सदी मे, तो दरभंगा- फैजाबाद बीसवीं सदी मे, बस्तर- कालाहांडी तो अभी अठारहवीं सदी से निकलकर उन्नीसवीं सदी के जीवन स्तर् मे आने के लिए जद्दोजहद कर रही है।जरा नजर उठा कर देखें तो एक शहर मे ही लोगों के जीवन स्तर मे सदियों का फर्क मिल जाएगा। हाथों की उंगलियों के समान लाइफ स्टाइल बड़ा- छोटा- मोटा- पतला होता है पर मुठ्ठी बंद हो जाये तो देश और समाज बन जाता है।इसी तरह कभी कभी आप अपनी जिंदगी से निराश हो जाते हैं।" क्या बेकार जिंदगी जी रहा हूँ मै! ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!",जबकि दुनिया में उसी समय कुछ लोग आपकी जैसी जिंदगी जीने का सपना देख रहे होते हैं।" काश मै भी उसकी तरह जी पाता"! अपनी जिंदगी से कोई संतुष्ट नही होता। " दूर के ढोल सुहावन लागे!" परायी जिंदगी और परायी स्त्री सबको अच्छी लगती है क्योंकि प्रोब्लम तो पा...

गछपकुआ आम

जतिन गाना  सुनते  सुनते यादो के  समन्दर  मे  गोते  लगाने  लगा  था! गांव  मे खेत मे जब मजदूर काम करते थे उसका " पनपिआई"(नाश्ता) लेकर खेत-बाद मे जाता था! पनपिआई का स्वाद अद्भुत और गजब का होता था। मोटी मोटी रोटियां, प्याज-नमक-तेल- अचार का राई और कभी कभी थोड़ी सब्जी! लेकिन उसको खाने का मजा ही कुछ और था!वह अपने लिए भी पनपिआई रख लेते और खेत मे जाकर " हरवाह" के साथ आरी-डरेर पर बैठकर खाते।इसमें अप्रतिम आनंद आता। आज भी उसके बारे मे सोचकर ही मुंह मे पानी आ जाता है। एक बार गेंहू के खेत मे पानी पटवाने "सरेह"(दूर का खेत) मे गया था। लौटते वक्त शाम हो गई तो डर से अकेले इसलिए नही वापस आ रहा था कि रास्ते मे पड़ने वाले एक सीम्मर गाछ पर भूत होने के किस्से सुनने को मिलता था। जब दो- तीन लोग वापस आने लगे तो साथ हो लिया। शाम का धुंधलका हो चला था। सीम्मर गाछ से थोड़ी दूर पहले वे लोग थे तो दूर से कोई आता दिखा। थोड़ी देर मे वह साया दो हो गया तो सबके कान खड़े हो गये। जो सबसे बुजुर्ग था ,उसकी हिम्मत भी जबाब देने लगी थी जब वहाँ तीन साया दिखने लगा। सबलोग आगे बढ रहे थे पर उन...

ट्रांसफर

"इ सब का है हो चंदेसर? ट्रांसफर के नाम से एतना डर काहे जाते हैं?का नोकरिया इ सोच के किए थे  सभे दिन घरे में रहेंगे ?एकदम्मे भगदड़ मचा के छोड़ेंगे का?अरे बहुत  लोगन के धंधा पानी चल ...