ईश्वर जो करता है वो अच्छा ही करता है। कबसे इच्छा थी कि "गिरमिटियों " के बारे मे पढूँ, पर समयाभाव मे पढ़ नही पा रहा था। हम लोग बिना एग्रीमेंट के " गिरमिटिया" बने बैठे हैं। शुक्र हो " चिकेन" के नामवाली बिमारी(चिकनगुनिया नही) का जिसने घर पर बैठा दिया, वैसे मै चिकेन खाता तो नही पर न जाने ये शाकाहारियों को भी पशु- पक्षी नामावली वाली बिमारी कैसे हो जाती है? शायद जानवर वाले अंश, जो बचा है, उस पर अटैक जल्दी करता है। गांधीजी भी वही करते रहे, अपने मे से पशुता को हटाते रहे!" गांधी इन मेकिंग के दौरान। खैर! इतिहास तो थोडा़ बहुत पढा है मैने, गांधीजी को भी पढा है, थोड़ा बहुत गांधीवाद भी जानता हूँ, पर गांधीजी को इस किताब मे नये दृष्टिकोण से देख पाया।उनका एक अलग चरित्र, व्यक्तित्व, कार्यशैली और विचार शैली देखने को मिला।मोहनदास से गांधी तो " एक गिरमिटिया" ही बन सकता था।जैसे महावीर और बुद्ध को रासलीला के बाद संसार की निस्सारता का बोध हो पाया, उसी तरह मोहनदास को अफ्रीका मे अपने शरीर के रंग का भान हो पाया, उससे पहले तो वे अंग्रेजी वेशभूषा और डिग्री के पीछे उसे ...